चहक कर कोई रुबाई गुनगुना उठे
शब्द चल पड़े बरसने सहर के बादल बनकर
सुनती है हर आहट क्यूँ तुझको भी
वो आंचल सर पर ओढकर देहलीज पर प्रतीक्षारत है
तुम्हे ही खोलना है अब अपना दरवाजा
चौराहे तक आ गये हैं ..
आगे के रास्ते दिखे ही नहीं ....ताले लटके है ..
कुछ झिर्रियाँ है यहाँ ..
शब्द उन्ही में से निकल पड़े है खत की तरह
चस्पा हुआ चाहते हैं ...तुम चस्पा सको गर ...
चस्पा दो उनको ...ठिकाना हो जायेगा इनका भी
उम्मीद की दुनिया है .,
शायद
चहक कर कोई रुबाई गुनगुना उठे
और छलक उठे स्वर लहरी कहीं दूर ..
गाँव की पगडंडियों से होकर गुजरते शहर के रास्तों पर भी .- vijaylaxmi
No comments:
Post a Comment