कब्र ए कफन पे मेरी जलता चराग वफादार है विजय
बाद मरने के रूह का रूह से मिलन असरदार है विजय
अश्क मेरे उसने मोती समझ के बेच डाले सरे -आम
दरकार ए मुहब्बत का फिर भी क्यूँ , इकरार है विजय .
है ये कैसी उसकी कुव्वत , है ये कैसी शौक ए शुमारी
जान लेके मेरी ही देता है जिन्दगी कैसा प्यार है विजय .
बहुरुपिया सी दुनिया में असल की पहचान है मुश्किल
फरेब ए मशियत समझ , जमाने से खबरदार है विजय.
रंग ए वफा में काबिल ए हुनर की दरकार हुयी यूँ अब
सच और झूठ कुछ हो ,उनके लब पर एतबार है विजय .
लफ्फाजी ए गजल न कर बैठे हम किसी से किसी रोज
अब देखना है बाकी , कितना खुद पर एतबार है विजय .
आँखों में जलते थे जुगनू और चरागात लिए से हम भी
न जाने किस रह-गुजर से गुजरे वो, इन्तजार है विजय .
लिए मुस्कुराहट लबो पर नई सी पहरन में आ गया वो
खुदारा जश्न ए मुहब्बत में हो शामिल क्यूँ खुद्दार है विजय .- विजयलक्ष्मी
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