Friday, 19 July 2013

खुदारा जश्न ए मुहब्बत में हो शामिल

कब्र ए कफन पे मेरी जलता चराग वफादार है विजय 
बाद मरने के रूह का रूह से मिलन असरदार है विजय 

अश्क मेरे उसने मोती समझ के बेच डाले सरे -आम 
दरकार ए मुहब्बत का फिर भी क्यूँ , इकरार है विजय .

है ये कैसी उसकी कुव्वत , है ये कैसी शौक ए शुमारी 
जान लेके मेरी ही देता है जिन्दगी कैसा प्यार है विजय .

बहुरुपिया सी दुनिया में असल की पहचान है मुश्किल 
फरेब ए मशियत समझ , जमाने से खबरदार है विजय.

रंग ए वफा में काबिल ए हुनर की दरकार हुयी यूँ अब
सच और झूठ कुछ हो ,उनके लब पर एतबार है विजय .

लफ्फाजी ए गजल न कर बैठे हम किसी से किसी रोज
अब देखना है बाकी , कितना खुद पर एतबार है विजय .

आँखों में जलते थे जुगनू और चरागात लिए से हम भी
न जाने किस रह-गुजर से गुजरे वो, इन्तजार है विजय .

लिए मुस्कुराहट लबो पर नई सी पहरन में आ गया वो
खुदारा जश्न ए मुहब्बत में हो शामिल क्यूँ खुद्दार है विजय
.- विजयलक्ष्मी 

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