हर बार तरफ से शक का कीड़ा जहर दाल देता है ..
ये अलग बात है ...उस जहर का असर हो या न हो
वो टूटा सा पुल फिर हौसला सा देकर उड़ जाता है गगन की ओर
निहारते हैं खुद भी उस तारे को अपलक अक्सर ...उसी खिड़की में बैठकर
जिन्दगी बाहर निकल आएगी शायद कभी तो ..
नदियों का उफान ढल गया भूख बढती जा रही है
सरकार की राहतें नाकाफी इंतजामात लिए हैं ...
इन्तजार है हर तरफ ....कितने दिन और भूख का दंश झेलना होगा
खा रहे है छके हुए लोग ...जिनकी नाक तक पेट भरा हुआ है ...
समझ नहीं आता उनका पेट ही है या कुआ ...
जहां दो रोटी नहीं है वहीँ तिजौरियों में भरी है भूख की रोटी
जो नग्न अवस्था में फिर रही है सडको पर ...त्राहिमाम त्राहिमाम !!.- विजयलक्ष्मी
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