Monday, 15 July 2013

शब्द ए शिनाख्त तौबा मेरी कब्र पर महक क्यूँ

सजा दें एक ख्वाब आँखों में तेरी भी अपना सा 
आ दामन की छाया से गम ढक दूं तेरे वरना पहरा क्यूँ .

बिखरी तासीर ए तस्वीर तसव्वुर सी बेतरतीबी से 
ठहर कर संवार जरा तकदीर ए तस्वीर वरना ठहरा क्यूँ .

लहर कर लहरे लहरे सी लहर उठती है सफर पर 
वादी ए खुशबू ए गुल पुरवाई की कसम वरना सहरा क्यूँ .

शिनाख्त वक्त की कर लेते गर नामुराद रुक जाता 
वक्त को बाँधने का हुनर कहाँ से पूछते गम वरना ठहरा क्यूँ .

शब्द ए शिनाख्त तौबा मेरी कब्र पर महक क्यूँ
चला जब महफ़िल से इन्तजार ए जहर है वरना ठहरा क्य

मुकम्मल मालूमात किसे है नहीं मालूम हमे भी
रही देहलीज पे दीप सी रौशनी की दरकार वरना ठहरा क्यूँ .

वही ख्वाब मुख्तसर सा पलकों पे थमकर गुजरा
ख्वाबों का सफीना मौत का मंजर सा वक्त वरना ठहरा क्यूँ .

सब सामने है खुली किताब सा आखों में ठहरा यहीं
कमी कुछ रही होगी हमारी आँखमिचौली सा वरना ठहरा क्यूँ
.- विजयलक्ष्मी 

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