Sunday 14 July 2013

ईमान सा जिन्दा रहने दे कहीं मुझको भी

हरे होते से वृक्ष काटकर सुखा रहा था ,,
दरकार थी बीज बोकर वृक्ष उगने की हमे भी 
गमले में पानी ओर खाद मेरे हिस्से था 
प्यास तो बादलों को लगती होगी सोचा ही नहीं 
चलो समन्दर भी बन जाऊं तुम्हारी खातिर 
खारापन शायद मुझमे पनपने लगा है आजकल 
वतन बन महकने की चाह में ...बमों से आग बरसती है 
घायल हूँ ...जख्मी हूँ ..नासूर बनने की कगार पर 
धर्म की राह में कर्मरेख पर आग ही आग दिखती है हर कहीं 
रमजान तौबा का मौका हुआ करता है सुना था
मुकम्मल सी मुख्तलिफ तलाश को ताकीद सी करती एक याद
गुमशुदा सी हुयी रंग ए बहारां की खुशबू ..लहू की नदिया सी
लाल लहू से रंगीन होती जमीन इंसानी जिस्मानी हिना के जैसी
ईमान तेरा मुकम्मल कहाँ है खुद में झाँक ले
मुझमे जलती है एक आग ...एक चिंगारी ..लपटों से बचकर रहना तुम
मेरे जनाजे पर भी ...आंसू न निकले ..हिचकियों से लबरेज याद की आंधी
उड़ जाये हर दरख्त औ दीवार किसी दिन गर
गिर गया पर्दा हया का किसी दिन गर
उठ गयी नजरे जानिब ए हुजुर गर
मरकर भी जी उठा मन फिर से गर
उदासी का रंग है ...अफ़सोस के बादल नहीं बरसे कभी
इन्सान मरते है कीड़ों मकौड़ो से ..कुत्तों को नसीब है मर्सिये फातिया
जन्नत ए दरकार ए दरकार वफादारी में हुस्न ओ जमाल सा नहीं ...बैगैरत हुए जज्बे
धरती का बोझ बढ़ रहा है अब तो हमसे भी
चल कुछ आसाँ हो जाये बोझ का उठाना गर ..
मन्दिर के घंटे से नब्ज के धारे धमक उठते है भीतर भीतर
उंगलिओं से उकेरी शाहदत पर एक नाम मेरा भी लिख दो
इंसाफ ...नाम है मेरा ..
हर गाँव कस्बा हिस्सा है मेरा
ईमान सा जिन्दा रहने दे कहीं मुझको भी .
.- विजयलक्ष्मी

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