कभी खुद में गुजार मुझे उसी तरह ..
गुजरता है चीरकर दर्द ए लहर ए लहू सुनामी जिस तरह
उबरता है ज्वार सा बह जाता उफनकर तूफानी जिस तरह
गुबार मौत का धुंध व्याकरण की आचरण पर जिस तरह
पर्दा ए वफा के भीतर टूटके गिरते हैं हर वक्त जिस तरह
ठहरा सा पत्थर तराशने की दरकार ए इन्तजार जिस तरह
सहर को सूरज चांदनी जिन्दगी का तसव्वुर चाँद संग उस तरह
चीरते हुए टुकड़े देखे है कटे वृक्ष के हिज्जे हुए उस तरह
चीख समाई है आत्मा में अंतहीना सी उस तरह
मिसाल क्या दूं क्या बिसारूँ ...
हिज्जे हिज्जे टुकड़े ..टुकड़े भी टुकड़े टुकड़े
क्या अणु...क्या परमाणु ..
कुछ है मगर क्या ...मुश्किल हुयी शब्द बयानी
बस अब बहुत हुआ ...ए जिन्दगी कहाँ पुकारूँ तुझे
ए मौत समा ले आगोश में ..
जुगत समझ में नहीं आती अब
मुझमे मैं ही नहीं ...कोई चीख नहीं समाती अब
लिपट जाती है छटपटाहट आत्मा में जिस तरह ..
न आवाज न साज...बस मद्धम सा टपकता एक अहसास
अनवरत ....अनवरत ...बस अनवरत ..
अब भी नहीं कह सके शायद ..जिस तरह ..हाँ उसी तरह.- विजयलक्ष्मी
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