Friday, 19 July 2013

अनजान भी नहीं मुसलसल पहचान भी नहीं ,


















अनजान भी नहीं मुसलसल पहचान भी नहीं ,
एक चेहरा मुझे मेरे ही ख्वाबो में सजा देता है .

खो गयी है नींद भी मेरी आँखों से दूर कहीं 
ख्यालों में बसकर मेरे पहलू में जगा देता है.

टूटकर बिखरती हूँ जब कभी खुद के भीतर
थामने को मुझको अपना हाथ बढ़ा देता है 



तमन्ना भी हुयी कई बार कि तन्हाई में रोऊँ
चुप से दिल के दरवाजे की जंजीर हिला देता है

करूं गुमान उसपे या खुद पे ,न समझी मैं
साथ पल भर ,लम्हे में सदियाँ भुला देता है
.- विजयलक्ष्मी 

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