Monday, 15 July 2013

काँटों से छलनी सीना है पर ...

सोच रहे हैं ...क्यूँ न आज शब्दों को बुन लूं ,
कुछ उधड़े से कुछ अधूरे से है धागे ,
कुछ रफू करने की फिराक में हूँ 
शब्दों की शब्दों पर ......
पहले ख्वाब बुना हमने ,दिल पर बीते अहसासों का |
अब कत्ल हुए शब्दों को लेकर ,
चीखों और रुदन से भीगे धागों का ....
लथपथ राह नजरों के आगे ढूंढ रही है रैन बसेरे 
हैं रात अमावस के धागे ,पूनम के ग्रहण लगे चंदेरे हैं |
दल बदलू दिल के कोने में कुछ तलवार चली थी खाली .
कुछ कटार सीने में घोपी, कुछ मन दर्पण पे कालिख सी
पाँव पसारे हाथ बाँध सपनों में कांटे सींच दिए ,
जाने क्यूँ फिर तुमने आकर ,
हाथों से सपने खींच लिए .......अब खून की होली है
माथे चढ़ती इंसानी रोली है |
आंसूं सूखे डर के कनारों पे पलकों की
आवाज दबी है रुदन की बौछारों में .....
काँटों से छलनी सीना है पर ...
फिर भी मुझको तो जीना है |
आशा के धागों को लेकर
वक्त की पांखों पर तलवार की धार पर ..
बुनना था ये स्वेटर -----------
अमीत जाने कब पूरा होगा .....?
जाने कब पूरा होगा ,,,,,,,,
,,विजयलक्ष्मी

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