Friday, 5 July 2013

हकीकत आँखों में पढ़ लेना अपनी

वीरानापन बढ़ता है क्यूँ ..
तपती सी आग भी बर्फ सी जमी दिखती है 
देवदार के वृक्षों में आग की चिंगारी अब दावानल सी जलती है 
कोई इंतजाम नहीं है सरकारी 
सरकारी नीतियाँ वक्त को खत्म करने की है 
शिलालेख मिलते नहीं यहाँ कहीं भी 
पत्थरों पर लिखा पढकर भी खाली सा खालीपन है यहाँ
सिंदूरी शाम या सहर क्या हुआ ..है तो सिंदूरी ही सजती है माथेपर बिंदिया भी
चूड़ी भी खनक कर आवाज सी देती क्यूँ है ..
उन दरवाजों के पार मिलोगे इंतजार के पल बैठे रहते है चौखट पर
एक आस का दीप जलता है हर वक्त ..आहत सी आहट पर आस होती है जिन्दा सी
हकीकत आँखों में पढ़ लेना अपनी
नदी की धार सा वक्त फिसल भी फिसलता नहीं है ..
और पुष्पित सी बेल होती है बसंत के मिलने से ही ये भी सच है पतझड़ के संग
.- विजयलक्ष्मी

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