Sunday, 7 July 2013

फिर बिखर जाते है

समेट लेते हैं 
बिखरे से अहसास 
किन्तु 
फिर बिखर जाते है 
खुद भी 
समेटते समेटते अक्सर ही 
इन्तजार ...
कितना लम्बा 
नहीं मालूम 
लेकिन ..
मेरे हिस्से में
यही है ..
कभी प्रश्न बनकर ,
परीक्षा सरीखा
कभी समीक्षा की मीमांसा सी
कभी क्षणिक सा,
कभी उम्रभर ..
उन्ही पलों में रुक
....
समय बेल
पुष्पित है
अजब से पुष्पों से
काँटों से उभरकर ..
खराशों पर
चिन्हित
खून के धब्बे
है यहाँ
....
हत्यारा तू
भगवान क्यूँ
और
मरने के बाद भी
बेचैन
मन...?
सूरज को पुकारो..
!!- विजयलक्ष्मी 

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