Thursday, 26 June 2014

" सभ्यता सिसक रही है ...बम भडक उठे ,संगीने तनी हैं "



कतरा कतरा लहू सडक पर बिखरा पड़ा है 
सभ्यता सिसक रही है ...बम भडक उठे ,संगीने तनी हैं 
और हम तमाशाई बने हैं ..ईमान की दूकान पर खड़े 
खरीद-फरोख्त जारी है...जज्बात खरीदे जा रहे हैं 
काले पेंट पुते काले धन की खबर चाहिए 
देखना हैं ऊंट किस करवट बैठता है ..या ..
अभी पहाड़ के नीचे ही नहीं आया ..
कल का फकीर पुतले फुंकवा रहा है ...रोकने नहीं आता कभी 
क्यूँ चुप हो ...कुछ तो बोलो ..बिखरे लहू और सड़ते लौथड़े इंसान 
के
चील कौवे भी नहीं आना चाहते संगीन तले
इन्सान या हैवान ...उसपर आसमान छूती बुलंद आवाज
जैसे महानता सर पर चढ़ी हो ..
मौत के सौदागर ...हज करते है और कर्बला बनाते हैं ...ईमान पर
वही ईमान जो काफिरों को मार दो कहता फिरता है
क्या कोई फतवा नहीं आएगा आज ..
कुछ तो है जो गिर गया है ...और ...
और ..इन्सान हैवान बन गये .
--- विजयलक्ष्मी 

" पिंजरा तो पिंजरा ही है साहिब "



पिंजरा तो पिंजरा ही है साहिब 
क्या फर्क सोने का नफरत का 

चलती साँस अगर थम जाये 
लम्हा मिलन का रुखसत का 

कोई यूँ ईमान लिए फिरता हो 
खूब सजे  बाजार फितरत का

खिलौना सा इंसान बहैसियत 
झुठलाता वजूद कुदरत का 

अह्म ब्रह्मास्मि अहम ब्रह्मास्मि 
भिखारी हुआ क्यूँ किस्मत का 

छिपाए है आस्तीन में खंजर
ढूंढता हैं मौका खिदमत का ---  विजयलक्ष्मी   

" तुम एक नदी और मैं सभ्यता .."



तुमने कहा था एक नदी हो तुम ,
और मैं एक सभ्यता ..जो जन्मी नदी के किनारे 
नदी के दूर जाने से बिखरने लगी ..
टुकड़े टुकड़े होती दिखाई देने लगी 
जिन्दगी बिखरती हुयी मिली चारो तरफ 
विश्वास नहीं हुआ न ..
देख लो ..
नदिया गदला गयी है सारी और इन्सान बिखर गये हैं 
शुद्ध जल पीने वाले दारू की बोतल पर मर रहे हैं 
धर्म क्षीण हो रहा है 
शिवालय को होटल बनाने का प्रपोजल चल रहा है
कुछ लोग अभी भी सूर्य को अर्घ्य देते है
लेकिन मालूम हुआ सूरज रोशन नहीं है जल रहा है
और सभ्यता ..बिखर रही हैं
पहाड़ से टकराकर बरसने से बदलो ने मना कर दिया है
कल मौसम विभाग की खबर थी बरखा के बादल मैदान में ही खड़े हैं
तुम्हारे इंतजार में नजरे दर ठहरी रही ..और तुम ..
आये तो सही लेकिन बिन शक्ल दिखाए चले गये
जैसे ..चाँद रात को देर निकले और आँख खुलने से पहले ही विदा हो जाये
फिर भी इंतजार के दीप जल रहे हैं ..
जानते हैं बहुत व्यस्त हो ..
हाँ मगर ..फिर नदी क्यूँ बने थे
हमे किनारे बसाया था तुमने ..
हमे वो किनारे रास आ गये हैं
टुकड़े टुकड़े ही सही ...मैं वही बसी मिलूंगी
मैं सभ्यता हूँ ...लोग कहते हैं मैं आधुनिकता से हार गयी ,
लेकिन मुझे ख़ुशी है ..मैं आज भी तुम्हारे ही तट पर बसी हूँ
यही घर है मेरा
तुमने कहा था एक नदी हो तुम ,
और मैं एक सभ्यता ..जो जन्मी नदी के किनारे
नदी के दूर जाने से बिखरने लगी ..
टुकड़े टुकड़े होती दिखाई देने लगी
जिन्दगी बिखरती हुयी मिली चारो तरफ
विश्वास नहीं हुआ न ..
देख लो ..
तुम एक नदी और मैं सभ्यता ..
हम जुदा नहीं हो सकते
तुम्हारे बिना मेरा वजूद कहाँ है ..देख लो --- विजयलक्ष्मी

Wednesday, 25 June 2014

"........,सम्मान देना कायरता नहीं होती"

धर्म पैरों में सर पे दौलत सवार है 
ईमान मर चुका जमीर भी बीमार है 
इक बाजार चौराहे पर लगा है 
सत्य रोता वहां बेजार है 
लो अच्छा है मुर्दों की बस्ती में कोई बिगुल नहीं बजता युद्ध का -- विजयलक्ष्मी 



युद्ध और योद्धा का अर्थ मालूम नहीं जिसको ,
भगोड़े सिपहसालार बन जनता को खेत रहे हैं .-- विजयलक्ष्मी 




जो बंदूक दूसरे के कंधे धरे फिरते हैं जान की खातिर,
योद्धा औ कायर का राग आलाप सुना रहे हैं घड़ी घड़ी .--- विजयलक्ष्मी 




वीर युद्ध से नहीं डरते,वीर का वीरोचित सम्मान भी करते हैं ,
आतंकियों को वीर कहा किसने,आचरण बदला या व्याकरण .--- विजयलक्ष्मी 




बा-हैसियत लोग जब बेहैसियत लोगो से टकराते हो व्यर्थ में ,
छिपते फिर रहे हो बराबर की हैसियत वालों से, उन्हें वीर कहूं कैसे ?--- विजयलक्ष्मी 




वीर वो नहीं जो दूसरो को नीचा दिखाए ,
वीर वो ,जो वीरता को वीरता से दिखाए 
सत्य कहे ,सत्य धारे ,सत्य से टरे न टारे.
वो कैसा वीर,, मजबूरियों को जो उघाड़े 
युद्ध करते हैं वीर बराबर वालों से आपने 
कायर वो जो सत्य से डरकर झूठ विचारे .-- विजयलक्ष्मी 




जो दुःख से दुखी हो अपनों के ,खुश देख अपने दुःख भूल जाये ,
आधी में करे गुजारा मुस्कुराहट लबो पर लाये,सच्चा वीर कहलाये --- विजयलक्ष्मी 




चंद क़ानून ,किताबी कायदे,इंसानियत नहीं घड सकते ,
पूजा को कायरता कहने वालों,सम्मान देना कायरता नहीं होती--- विजयलक्ष्मी 

"अपनी तन्हाई मुझे देदो तुम तो करार आ जाए ,"

अपनी तन्हाई मुझे देदो तुम तो करार आ जाए ,
जिन्दगी का लम्हा लम्हा.. बेजार किये जाता है 

ये हवा ये पुरवाई ..आंधियां बनके गुजर रही है
एक दीप है दिल में जला इंतजार किये जाता है 

मेरी मौत बुला दे ए खुदा मेरे जिन्दगी तू नहीं देगा 
एक अहसास बसा है दिल को बेकरार किये जाता है 

छूकर आती है हवा तुझको ये भी अहसास हुआ
मुस्कुराहट का हर लम्हा मुझसे इकरार किये जाता है -- विजयलक्ष्मी 

Thursday, 19 June 2014

" क्या रूह की आवाज सुनी तुमने , मन आह्लादित हुआ"

नींद ..जैसे गश खाकर गिरना चाहती है 
पलको पर हथियार बंद होकर ,
पलकों पर ख्वाब का पहरा ठहरा 
जब अओगे ..इंतजार बिखरा मिलगा जमीन--- विजयलक्ष्मी 


जरा जरा बात पर दर बंद करेंगे घर वीराना होगा ,
हमने नदी से नहरे निकालने की कसम खाई है -- विजयलक्ष्मी 


रुके हैं कदम आज भी उसी मोडपर ,
मुडकर देखिये,गये थे जहाँ छोडकर -- विजयलक्ष्मी 


तेरा जलना खुद में ,जला गया मुझको ,
वरना सच तो यही है ,माचिस को जलना है-- विजयलक्ष्मी 


" क्या रूह की आवाज सुनी तुमने , मन आह्लादित हुआ ,
सुनो ,.....झरोखे पर आओ ,द्वार पर ताला है जज्बात का "--- विजयलक्ष्मी 

" चित्र मन:पटल पर खींच रहा था"

वो दिन सुंदर थे कितने 
जब बचपन अपना बीत रहा था|| 
आँखों में ठहरे थे सपने 
कदम कदम सब बीत रहा था ||
जलभर जलधर नीरवता 
जैसे हार हारकर जीत रहा था||
रक्तिम वर्ण लिए गगन 
समय अन्धकार पे बीत रहा था ||
मेरे जीवन की मधुर स्मृति 
चित्र मन:पटल पर खींच रहा था||--- विजयलक्ष्मी 

" नहीं चाहती ....शुक्र के बिना गुजर जाऊं समय से पहले "

क्या लिखूं और क्यूँ लिखूं ..
और लिखूं भी तो किसके लिए 
दर्द की चादर उघाड़ना तुम्हे दर्द देता है
मेरे शब्द तुम्हे भाते नहीं है 
मेरे अहसास तुम्हारे लिए फालतू कूड़ा करकट है 
मेरी हंसी ...तुम्हे यन्त्रणा देती है 
मेरा बोलना शूल सा चुभता है 
मेरी बाते तुम्हे परेशान करती हैं 
मेरी उपस्थिति अनिवार्य है ..जानती हूँ ,
हाँ...एक सत्य स्वीकारती हूँ ...जो खूब भाता है तुम्हे ...
वो हैं हमारी चुप्पी |
फिर भी बोलती हूँ
दूर बैठकर देखती हूँ राह
करती हूँ इन्तजार ..
बहुत वाचाल हूँ शब्दों के साथ ...क्या करूं
क्या कह दूं मजबूर हूँ तुम्हारी तरह
दर्द को टोकती हूँ
गुस्साती हूँ खुद पर
शुक्रगुजार हूँ ...इस पायदान पर खड़ा रखने के लिए
मगर प्रयासरत हूँ ..
नहीं चाहती ....शुक्र के बिना गुजर जाऊं समय से पहले !--- विजयलक्ष्मी 

" मैं असभ्य ही ठीक हूँ "

आजाद हो गयी रूह ,,
क्या सच में हो पायी आजाद ..
आत्मा सुना है मरती नहीं है ..
जो आजाद नहीं होती वो ही बनती हैं प्रेतात्मा ..
वो तो बन रही है ...या बन चुकी ,,
वोट और चोट के खेल में ...
मासूम उम्र प्रेतात्मा बन भटकती रहेगी 
क्या न्याय मिलेगा ..दरख्त से लटकती हुयी देह को
माँ की कोख को ///पिता की चोट को ..
समाज की अंतिम इकाई को 
गाँव की तरुनाई को ..
उस वृक्ष को ...खेत को ..रस्सी को
उस रस्ते को ..
उनकी तडपती घुटती लुटती इज्जत को
उसी रस्ते से गुजर कर ..
मर्द की मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है
कौन है आखिर ..मरद ..वो जो राक्षस से भी एक पायदान नीचे हैं
या ..वो जो ..देख सुनकर जानते बूझते ..
तमाशा बना रहे हैं
या सत्ता की हनक दिखाना चाहते हैं ..
या वो ..जिनके हाथो ने चूड़िया पड़ी हैं ..लेकिन दिखती नहीं है
बस बजती हैं ...
एक और हवस-कांड होने पर ..
स्कूल ,खेत ,राह छोडिये ..उसी सुरक्षित घर में घुसकर
जहाँ ...माँ भी है बाप भी रिश्ते गाँव सब हैं
लेकिन कोई जिन्दा नहीं लाशे हैं बस
मादा देह ...हवस की शिकार ..
लटकती है उसी वृक्ष की डाली पर ..
जहाँ से उतरी थी ...
जीवन से अतृप्त ,सतायी हुयी
अनगढ़ कच्ची कमसिन देह ..
खेलती थी ,घडती थी किस्से गुड्डे गुडिया के
ख्वाब का मतलब नहीं जानती थी जो
नहीं सुनी ...चीख चीरती हुयी आत्मा को तकुआ से ..दुसरे छोर तक
पसरा है मौन ...
न्याय ..इज्जत.. ईमान ..सब मोहताज हैं
अन्याय ,सभ्यता ...
मुझे सभ्य नहीं बनना ..
एसी सभ्यता से मैं असभ्य ही ठीक हूँ
.---विजयलक्ष्मी 

" एक दीप जल रहा है सहर की आस में .."

नाम लेकर पुकारा तुमने मुझे जिस पल 
निश्छल सी आत्मा उस छोर दी चल 
जहाँ गगन ने धरा को सम्बल दिया 
क्षितिज किसने कहा ...अहसास की दरिया उठी पिघल -- विजयलक्ष्मी 




साँझ चल दी ढलती रात को बुलाने ,
सूरज दिनभर की थकान से सो गया 
कुछ ख्वाब रुपहले से ले पलकों में 
स्वप्नीली ख्वाबों की दुनिया में खो गया --विजयलक्ष्मी 



जो आप किनारा है वहीं किनारे की तलाश में ,
एक दीप जल रहा है सवेरे की आस में---- विजयलक्ष्मी 


रातो का हिसाब तेरी रतजगे में देंगे ,
भोर के सूरज को अर्घ्य भी मिलेगा -- विजयलक्ष्मी 

" चौको नहीं ,,,यह मैं ही हूँ "

तू सत्य है तो ,चीख मुर्दा बस्ती जल उठे ,
और लाशे जो दफन हैं ........उठ खड़ी हो ..



क्यूँ न ..लिख दूं इक पाति
क्या लिख दूं बतलादो 
सत्य कष्टकारी है 
असत्य विनाशकारी है 
दम्भ लिख नहीं सकते 
सत्य तुम समझना नहीं चाहते 
क्या लिखूं ..हे अहो ,तुम ही कहो 
क्या सगुण होकर निर्गुण की व्यथा लिखूं 
या ..निर्गुण को सगुण से मिलाना लिख दूं 
उपासना की राह बहुत क्लिष्ट होती है 
उसपर निर्गुण उपासना...
इक अहसास जिन्दा सा लिए
मिलते हुए हर मोड़ पर ..हर छोर पर
बिछोह किसे भाता है ...
किन्तु ...रूठने से स्वप्न टूटता है
मुझे तन्द्रा से यूँ न जगाओ
मेघ बरसे तो बह जाएगी ..बस्ती तेरी ..हस्ती मेरी
और बढ़ जायेगा एकाकीपन ...
देह को भेजकर विदेह हो चुके
वो जो पसरी है मृतप्राय सी हो
देखो ...तुम्हारे साथ कौन अंश हैं खड़ा ..
यूँ उठकर टहलने से ...नजरे घुमाने से सत्य नहीं बदलेगा
ठहर जाओ ..रुको ...निहारो इधर ..
और सोचो .....अब ,
चौको नहीं ,,,यह मैं ही हूँ !! ------विजयलक्ष्मी 

" वक्त को भी नन्हा नन्हा काट दो ,"




वक्त का पहिया चलता चला गया 
मेरी मुट्ठी खाली थी ..
इन्तजार भी किया .."तुम मुडकर देखोगे "
किन्तु ..
तुम्हे नहीं देखना था ,
तुमने अपने हिस्से इन्तजार खत्म किया ही था 
और हमने ....शुरू किया ..
कुछ मिनट या सेकेण्ड ..बदल जाते हैं घंटो ,महीनों या युगों में ..
या ..समय बीतता नहीं जैसे थम गया हो 
हमारी आंख की कोर पर ..
घड़ी चलती है ...
किसी के लिए दौड़ती सी
सबकुछ पीछे छोडती सी
किसी को जैसे सबकुछ मिल गया
और रास्ता जिन्दगी का मिल गया हो
मंजिल के पथ पर फूलो भरा चमन खिल गया हो ..
और कुछ ...
सबकुछ लुटाकर आपही लुटे पिटे से बैठे हो
वक्त लौटता नहीं बहती नदी सा बढ़ता चला गया
और ...
छोड़ गया कुछ निशाँ निहारने को
वक्त पर हमने भी लिख दिता पैगाम ,
देर सबेर मिलेगा जरूर ..
इसी उम्मीद पर ,
सुना है उम्मीद पर दुनिया कायम है
शब्द रबर की तरह खींचते जा रहे है हम
कुछ पल भी द्रोपदी के चीर से बढ़ गये हैं ..
बढ़ते इंतजार को काटने का तरीका
वक्त को भी नन्हा नन्हा काट दो ,
जैसे ...गोया कोई दुश्मन है .
--------- विजयलक्ष्मी 

Wednesday, 18 June 2014

" खड्ग स्वाभिमानी लक्ष्मीबाई की लहराती हैं"



"स्याही से नहीं बनती आजादी की तहरीरे,
लहू से सींचकर ही ये पौध उगाई जाती है .

चाँद की तन्हा चांदनी रात लुभाती रही , 
हर सुबह सूरज से आँख मिलाई जाती हैं

हैसियत कुछ न सही मगर हौसला बहुत 
छोटी सी बदली भी जा पहाड़ से टकराती है

वीरानो को रंगते हैं हम नागफनी के पौधे 
उड़ती रेतीली आंधी कुछ न बिगाड़ पाती है

परतंत्र रेंगते रहने से तो मौत बेहतर है  
खड्ग स्वाभिमानी लक्ष्मीबाई की लहराती हैं"  
 -- विजयलक्ष्मी

Tuesday, 17 June 2014

" छिनार औरत ही क्यूँ है हर बार,.. छिनरे पुरुष नहीं होते कभी "


"बवंडर उठने ही वाला है.......... शरीफों की बस्ती में 
कोठे से कुछ हस्ताक्षर पन्नो पर उतर के चल चुके है ."-- विजयलक्ष्मी




बुढ़ापे में शादी करके एक स्त्री को इज्जत बख्शी कानून के कारण ,
जो खो गयी कोठे की गलियोंमें उनकी जिन्दगी का कौन करे निवारण ||
बिना डी एन ए टेस्ट के मंत्री को मंजूर नहीं हुआ सच उगलना
ये तो एक ही कहानी सामने आई है दोस्तों ..बाकी का कैसे हो प्रसारण||
दूसरे ने बीवी के रहते दस बरस पहले बहकाली दूसरे की लुगाई
कही रोटी कही बच्चे कही दौलत औ शौहरत बनी वैश्या होने का कारण||
छिनार औरत ही क्यूँ है हर बार,.. छिनरे पुरुष नहीं होते न कभी
एसा क्यूँ  बलात्कार,व्यभिचार के कानून भी बदल नहीं पाए आचरण ||
किसी को शौक चर्राया है मजबूरी खरीदकर मजबूर को बेचने का
मजबूरिया औ शौक, टकराए जर जमीं जोरू,रुतबा औ एश बना कारण|| -- विजयलक्ष्मी  

Monday, 16 June 2014

" लटकी हुयी बालाओं का यहाँ कौन सवाली है "

हमारे देश की बात भी कितनी निराली है ,
एक ही वृक्ष की अलग अलग रंगी डाली हैं .

वाह क्या खूब यहाँ पर पुलिसिया अंदाज है 
छेड़छाड़ की पूछताछ .हत्या पर जुगाली है 

घरानों और निशानों के अंतर भी देखिये 
पैसे वालो की चली गरीब न्याय से खाली है

जिंटा वाडिया की चिंता सभी को सरापा सी 
लटकी हुयी बालाओं का यहाँ कौन सवाली है

नामचीन खरीद रहे वक्त क्या ईमान क्या
गरीब की इज्जत बनी ,,चौराहे की नाली है

हैसियत ने देख लो कलम भी खरीद ली
छोड़ गरीब, अमीरी की कहानी लिख डाली है .
-- विजयलक्ष्मी

" जिन्दगी सवाल बनी गर वक्त जवाब जरूर देगा ,"

जिन्दगी सवाल बनी गर वक्त जवाब जरूर देगा ,
गुजरने दो इन नामुराद लम्हों को जख्म पूर देगा||

चाँद सितारे गगन से उतरे गुल बनकर आंगन में 
निकलता सूरज उनके चेहरे को ..रंग औ नूर देगा.||

वो जो मौत के सौदागर है गोली बोते रहे सीने में 
लिए संगीन के साए वो सोचते है..... खुदा हूर देगा ||

सभ्यता के दुश्मन इंसानियत के लुटेरे बने है जो 
लगाए बबूल जिसने उम्रभर उसका फल जरूर देगा||

रंग ए वफा को मापने के पैमाने नहीं बने आजतक
वक्त के मुन्तजिर रहे सदा ही जवाब वक्त जरूर देगा||  
-- विजयलक्ष्मी

" देखेंगे तोड़ता है वक्त कब बेवक्त बंधी जंजीरों को "

"बिखरने दो हर एक रेशा ,उड़ने दो लिहरों को ,
जो लिखा है सफर में ,पढ़ने दो तकदीरों को .

बागुनाह हैं या ..बेगुनाह रंज करे भी तो क्या ,
वक्त की कचहरी में ही अब होने दो तकरीरो को 

तहरीर लिखी है जिस स्याही से लहू रंगी सी है
देखो नीव के पत्थर चले चमकाने शहतीरों को 

अब बेगुनाही की गवाही वक्त देगा वक्त पर खुद 
चलन शब्दों का लिखेगा उस वक्त की तहरीरो को

मुफलिसी की बात है या बेगैरत सा दीवानापन
देखेंगे तोड़ता है वक्त कब बेवक्त बंधी जंजीरों को "
- -----  विजयलक्ष्मी

Sunday, 15 June 2014

सभी पापा को आज के दिन की विशेष शुभकामना !!



आज फेसबुक पर सब अपने अपने पापा को best wishes देने में लगे हैं ......सच बताना कितने लोगो के पापा फेसबुक खोलकर देखतें हैं ,...क्या मात्र एक दिन की बधाई उनकी ख़ुशी है ,क्या कभी कुछ घड़ी उनके पास बैठकर देखा है ...जाना है जिन्दगी के उन अनछुए लम्हों को जो किसी को बांटने की उन्हें फुर्सत न हुयी ...क्यूंकि उन्हें जाना होता था धन कमाने ...हमारी शिक्षा ,हमारी किताबे हमारी जरूरत को पूरी करने ..... सुबह जल्दी जाना शाम गये घर लौटना ,,,कभी डांटना कभी परेशान होना ....कभी तसल्ली के दो शब्द कहे किसी ने अपने पापा को ...एक बार सिर्फ एक बार कहकर देखो ..".पापा आप परेशान मत हुआ करो मैं हूँ न "!!........मैं नहीं कह सकती अपने पापा को लेकिन ..हर वक्त साथ है मेरे ..पापा भी माँ भी .......आप दोनों थे तो हम हैं ..आज है ..घर है...बहन भाई है... रिश्ते नाते हैं ...क्यूंकि इन सबमें आप दिखाई देते हो है और हमारे भीतर आपके दिए हुए संस्कार हैं ...आपका प्यार और एक सुखद अहसास ...शुक्रिया , भगवान जी ..मेरे पापा माँ को खुश रखना अपने पास
!!


पिता का दिन ,,
जिसने होम करदी जिन्दगी सारी
अपनी ख्वाहिश न्यौछारी सारी
कम रोटी देखकर कह दिया भूख मिट गयी है,,
बच्चो के आगे इच्छाए सिमट गयी हैं 

धूप में तपकर निवाले खिलाता है
अपने फटे जूते छोड़ बेटे को खरीदवाता है
शौक भूलकर पैसे बचाता है
उधारी करके भी आगे बढाता है ...
कैसा समय आया ...छोडकर वृद्धआश्रम में अपने पिता को ..
दोस्तों को पिता दिवस की बधाई भिजवाता है ,,
लुटाई जिसने घड़ियाँ जिन्दगी की तुझपर ...
उसी पिता के हिस्से में सिर्फ एक दिन आता है ||
वाह री संस्कृति वाह रे संस्कार ..
भारत को इण्डिया बनते देख सर शर्म से झुक जाता है
ये मेरे भारत के संस्कार नहीं
ये हिन्दुस्तानी विचार नहीं
मेरे राष्ट्र में चरण छूकर नित आशीष लिया जाता था
पहली थाली पर नाम पिता का आता था ,
एक दिन नहीं एक बरस नहीं ,
हर पल मेरे नाम से पिता का नाम ही लिखा जाता था
सच बोलूं बस इसीलिए मेरा भारत सोने की चिड़िया कहलाता था
|| 
---------- विजयलक्ष्मी




 ....माँ का एक दिन ,,,एक दिन पिता का ,...बाकी दिन ..अरे हाँ एक दिन राखी का याने एक दिन बहन का और एक दिन टीके का मतलब भाई का ....दादा दादी का भी एक दिन हो गया एक हुआ दोस्ती के नाम ...एक ... और बाकी दिन का क्या .. वैसे एक राज की बात बताऊँ ...कोई नहीं बोलेगा ....मन में घुटते रहेंगे लेकिन .....क्यूंकि कुछ पुरुष जनक तो होते हैं किन्तु पिता नहीं ....बच्चे उनके लिए सम्पत्ति की तरह होते हैं जिसे जैसे चाहे घुमाया जा सके ....बच्चों पर निर्णय थोपते हैं ...पूरा न करने पर उन्हें समय समय पर इन बातों का अहसास कराया जाता है .....देनी तो नहीं चाहिए किन्तु ...जनक बनने के साथ पिता भी बने ...रिश्तों में मिठास और प्रगाढ़ता उम्र भर रहेगी और रिश्ते की सार्थकता भी सिद्ध होगी | ---- विजयलक्ष्मी

Saturday, 14 June 2014

"अब किसी को मत कहना सूरज सा दहकने को ,"

इतनी ख़ामोशी ,ख़ामोशी भी सहम जाएगी 
कोई आवाज तो हो, चलो हम टूटकर बिखर जाते है 
कोई शर्त नहीं है ...शर्त लग भी नहीं सकती 
न तो सगेवाले हैं कोई न दुश्मनी ही हुयी ढंग में 
खेल भी नहीं खेला कोई ..कभी साथ 
बस यूँही ....चलते है सफर पर साथ साथ राह अपनी अपनी
सडक के दो छोर जैसे ....
चल रहे हो ..जुदा जुदा ..
दो किनारे नदी के बहते हुए जज्बात के धारे
तुम्हे छुए कभी ..शायद नहीं ,,
सफर जारी है .
खत्म हो जायेगा ,,
थम जाएगी सांसे जिस दिन
और फिर चले जायेंगे कभी न लौटने के लिए
तुम्हे दुःख नहीं होगा ..जो अपना नहीं उसकी कमी कब सालती है भला
हमे रहेगा ...लेकिन
बस इन्तजार ..इन्तजार और बस इन्तजार ,
साथ लिए स्नेहसिक्त से लम्हे जो जिन्दा ही मिलेंगे
हमेशा ...मेरी विदाई के बाद ..तुम्हारे भीतर..
लेकिन बिन मिले कैसी विदाई ..फिर भी
शायद हाँ ...
तब सुनाई देगा सन्नाटे का धडकना ..
कानों में तासे सा बजना..जिन्दा से जज्बात ,
ठहरे रहो ,,.हाँ ..अभी कुछ समय बाकि है
सूरज नहीं है हम ,,चाँद भी नहीं ,,
जुगनू बन नहीं सकते ..
शमा बनकर जल नहीं सकते
तूफ़ान की दिशा बदल सकते है ,,
तुम्हे क्या ...तुम ,,
गुनगुनाओ..
कुछ लम्हों की इजाजत हो गर ..
साथ ले जाने की ..लेकिन
एक गुजारिश है ...
अब किसी को मत कहना सूरज सा दहकने को ,
धरती एक सूरज के दहकने से जल रही है आजकल.क्यूंकि
-- विजयलक्ष्मी

Friday, 13 June 2014

" हम तो सफर पर है आज तक ,तुम्हारी तुम जानो "




" खुद से भरोसा उठ गया क्या जो रूठ गयी दुनिया ,
हम तो सफर पर है आज तक ,तुम्हारी तुम जानो 
गंगा पहुंचती है गंगासागर ,ये सच बदला कब 
सब दीप जल रहे हैं आरती के, तुम्हारी तुम जानो .
समन्दर खरा है खारा होकर भी ,मोती खुद में समेटे 
सीप बनने की ख्वाहिश का तुम्हारी तुम जानो 
तुम भूल सकते हो बजती हुई मन्दिर की घंटी
हमे मझधार में रहने दो, तुम्हारी तुम जानो "

-- विजयलक्ष्मी

" हवस की खोपड़ी में छिडककर तेल किस्सा ही........|"

सुना था उत्तरप्रदेश के लोग मरने मारने से नहीं डरते ,
जाने क्यूँ फिर भी इन घटनाओं से उपर क्यूँ नहीं उबरते 

जिसे औरत की इज्जत नहीं जंचती वो जिन्दगी जिन्दा क्यूँ है
जिन्हें शेर कहकर पुकारती थी माँ, शिकार क्यूँ नहीं करते


जितनी बेबाकी बेअदबी भरी गुंडागर्दी भरे कदमों में 
उनको तहजीब की तलवार से कत्ल क्यूँ नहीं करते 


मोमबत्ती जले मगर सडको पर नहीं ,,रूटीन बयाँ जिनका 
उनको मालूम हो लोग सडको पर यूँही नहीं उतरते 


हर तरफ नर्तन है मौत का कुछ और सही कुछ और सही 
हवस की खोपड़ी में छिडककर तेल किस्सा ही खत्म क्यूँ नहीं करते
--  विजयलक्ष्मी