कलम से..
Monday, 28 May 2012
बिखर जाने देते हमे ,आदत है सिमटने की फिर फिर
या खुदा !कैसे सम्भालेंगे अब इस गुनाह को अपने ..
विजयलक्ष्मी
वो बिखरा है इस कदर कि सहना मुश्किल है अमीत
जमी निगल ले मुझको, ए खुदा !मिटा दे राह ए पनाह अपने ..
विजयलक्ष्मी .
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