आईने में खुद को ही नज़र हम न आये ..
आई ऐसी रात लगा अब सहर न आये ..
लगता है डर नजरों से खुद कि अब तो .
बीता कोई लम्हा साँसे ठहर न जाएँ ..
न मिला कहीं रोशन सितारा कोई "अमीत "
ढलका जो दर्द ए दरिया बरपा कहर न जाये ..
डूबे हैं समंदर में वजूद कहाँ बाकी है अब
सूरत ए हाल लगा दुनिया ही ठहर न जाए ..
होश आने भी पाया नश्तर लगा ऐसे
थम गयी जो साँस अधर में ठहर न जाये ||-विजयलक्ष्मी
सर्वाधिकार सुरक्षित .
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