कुछ अहसासों को गर कविता मानों तो कहदो कविता है ...
खरोंचे सी है कुछ , दर्द ए तसव्वुर की शायद ..
कभी भरेंगी नहीं ,समन्दर को छूना मना है हमें .!
चित्कारती सी आवाज पुकारती भी है ....
प्रश्न सा छूकर कह जाती है रुके रहना यहीं .
अंतस को बरसने भी नहीं देता ...थमा सा एक अहसास ,
घनीभूत पीड़ा सी एक ,साथ क्यूँ ?
हदों की बंदिशे तो खत्म होनी थी .कुछ हदें बढ़ गयी हैं आजकल ...
आसमां खुला होकर भी स्याह सा नजर आया है ...
सहर की लालिमा ने अजब सा श्र्गार कर मौत के साथ दावत का मंजर सा सजय है ..
..कातिल मेरे ही कत्ल को भी छुरी मुझसे ही मांगता है ..
आंसूं क्यूँ बहाऊँ...शहादत बाकी है सांसों की संसद के दरवाजे पर ...
लोक सत्ता मुह चिढा रही है और पिचकारियाँ लेकर कुछ बौछार शरू हों ही गयी आखिर .....
आज के मौसम का तापमान खामोश है मनन की खातिर ..
अब टपके का डर सिंह से ज्यादा सताता सा लगने लगा है ...?
सूखे से खेत मुहँबाए आसमां को निहारते है बूँद तो बरसे ...
कुएं खोदने वाले तो सूखे में नदी की लकीरें खिंच कर ताली बजा रहे है ..
कुछ सहर के सुरज के साथ छेड़छाड़ के मूड में लगे दिखाई दे रहे है ...
दूध की नदियाँ पानी को भी त्राहिमाम त्राहिमाम करती दिखाई दे रही है ..
अखबार की खबरे हर आंख में दूर तक पढ़ी जा रही है मगर..
चुप्पी मौत सी पसर जाती है ...
कुछ को खिडकी से मुहँ छिपा के कच्छप सी आदत है...
शक्ल ओ सूरत दिखा शिखंडी की तेरे पीछे छिप जाने की ..
जंगली फूलों को महलों के तरीके लुभाते तो है जिंदगी गिरवी पड़ी है दिखाई दे रहा है कोशिश तो कर ही लूं शायद....टोटके लगने लगे है ...
सत्ता छोड़ कर रानियाँ महल के बाहर कैसे आ रही है ...
सूरज सहमा सहमा सा क्यूँ है आजकल ...
आवाज की बुलंदी कहीं भीतर से रही है कुआँ जैसे कोई कब्जा लिया हों ..
फिर चल पड़े न तुम मेरे साथ खेलने खेल..
रुको जाओ बस वक्त भी चल दिया ...
शब्द तुम ...भी चलो अभी ..मिलूंगी तुमसे भी ...भेंटना है ..
.कल तुम दिखे नहीं ..या ओझल हुए क्यूँ बताओ ?
जान लो खिडकी खुली थी... अंतस का उजाला मुहँ फेर कर निकल गया ...
और इन्तजार ..इन्तजार ..बस फिर इन्तजार ....?--विजयलक्ष्मी
—खरोंचे सी है कुछ , दर्द ए तसव्वुर की शायद ..
कभी भरेंगी नहीं ,समन्दर को छूना मना है हमें .!
चित्कारती सी आवाज पुकारती भी है ....
प्रश्न सा छूकर कह जाती है रुके रहना यहीं .
अंतस को बरसने भी नहीं देता ...थमा सा एक अहसास ,
घनीभूत पीड़ा सी एक ,साथ क्यूँ ?
हदों की बंदिशे तो खत्म होनी थी .कुछ हदें बढ़ गयी हैं आजकल ...
आसमां खुला होकर भी स्याह सा नजर आया है ...
सहर की लालिमा ने अजब सा श्र्गार कर मौत के साथ दावत का मंजर सा सजय है ..
..कातिल मेरे ही कत्ल को भी छुरी मुझसे ही मांगता है ..
आंसूं क्यूँ बहाऊँ...शहादत बाकी है सांसों की संसद के दरवाजे पर ...
लोक सत्ता मुह चिढा रही है और पिचकारियाँ लेकर कुछ बौछार शरू हों ही गयी आखिर .....
आज के मौसम का तापमान खामोश है मनन की खातिर ..
अब टपके का डर सिंह से ज्यादा सताता सा लगने लगा है ...?
सूखे से खेत मुहँबाए आसमां को निहारते है बूँद तो बरसे ...
कुएं खोदने वाले तो सूखे में नदी की लकीरें खिंच कर ताली बजा रहे है ..
कुछ सहर के सुरज के साथ छेड़छाड़ के मूड में लगे दिखाई दे रहे है ...
दूध की नदियाँ पानी को भी त्राहिमाम त्राहिमाम करती दिखाई दे रही है ..
अखबार की खबरे हर आंख में दूर तक पढ़ी जा रही है मगर..
चुप्पी मौत सी पसर जाती है ...
कुछ को खिडकी से मुहँ छिपा के कच्छप सी आदत है...
शक्ल ओ सूरत दिखा शिखंडी की तेरे पीछे छिप जाने की ..
जंगली फूलों को महलों के तरीके लुभाते तो है जिंदगी गिरवी पड़ी है दिखाई दे रहा है कोशिश तो कर ही लूं शायद....टोटके लगने लगे है ...
सत्ता छोड़ कर रानियाँ महल के बाहर कैसे आ रही है ...
सूरज सहमा सहमा सा क्यूँ है आजकल ...
आवाज की बुलंदी कहीं भीतर से रही है कुआँ जैसे कोई कब्जा लिया हों ..
फिर चल पड़े न तुम मेरे साथ खेलने खेल..
रुको जाओ बस वक्त भी चल दिया ...
शब्द तुम ...भी चलो अभी ..मिलूंगी तुमसे भी ...भेंटना है ..
.कल तुम दिखे नहीं ..या ओझल हुए क्यूँ बताओ ?
जान लो खिडकी खुली थी... अंतस का उजाला मुहँ फेर कर निकल गया ...
और इन्तजार ..इन्तजार ..बस फिर इन्तजार ....?--विजयलक्ष्मी
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