Wednesday, 23 May 2012

मौन साधना ...

मृत्यु  वरण की मौनं साधना ..
भाषा मुखर रूप और सानिध्य आत्म का आत्म से 
परिकल्पना को यथार्थ रूप सी सुनाती सम्वेदना 
सम्प्रेषित हुआ विचार अब दुर्दांत कैसे अहो !
अब विचार शून्यता है कहाँ ..कैसे कहो ..
एक जन्म जीकर जीवट अब जागरण मन का सुना...
झांक अपने भीतर हमने उसी एक आवाज को सुना
जाने क्यूँ प्रस्तर मन बोल उठा धीमे से ....
चल जाग अधर में जीवन की लीला ...
कदम जो बढाये थे ..सखा सम जाकर अब मिला....
क्यों सोच मन में हैं अधूरी ..
क्यूँ अधूरी परिकल्पना ......
कोई नहीं बाकी कहीं अब विलग सा रास्ता ..
म्रत्यु वरण की मौन साधना ...
मुखरित शब्द भेदी वाणी की बोधगम्यता ..
नीरवता मन की और सजल जीवन की परिकल्पना ..
नश्वरता तन की ,रूह की शाश्वत सत्ता का का अभिदान ...
वक्त के साथ वक्त की गुजरिश की अवमानना ..
नब्ज की आराधना ....नैन भर पीड़ा को पी ...अश्रु विरासत बाचना ..
जुडना विभेद करना क्यूँ भला अद्वैत जैसी भावना ...--विजयलक्ष्मी


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