Thursday, 17 May 2012

,दिखती विकल दुःख में डूबी सौंदर्य विहीन बंजर सी क्यूँ धरणी,

जलहीन धरा ,रसहीन धरा खुद भी आज तरसती है ,
दिया जहाँ को जिसने सर्वस्व ,लगता है आज तरसती है ,
छीनी छपटी लुटी लुटी सी है ,मानवता को पुकार रही है वो |

निर्झर झरने हरियाली बाना त्याग, यहाँ जैसे वनवासित हुई, 
दिखती त्यक्ता सी श्रृंगार विहीन फिर अर्पण और समर्पण है ,
सूनी सूनी अंखियों से क्यूँ ,लगता अम्बर को निहार रही है वो |

दिखती विकल दुःख में डूबी सौंदर्य विहीन बंजर सी क्यूँ धरणी,
विधवा नारी सम प्रेमविहिना ,भरी भीतर जैसे दर्द और तर्पण है 
खुद अर्धनग्न होकर भी लगता ,मानवता को दुलार रही है वो |

न चैन मिले ,कब रैन ढले ,नैना अपलक पथराई हुई सी ..
न नीर ढले न अम्बर गीला ,जलती भुनती तपती हुई सी ..
फटे ओष्ठ अम्बर चूमें ,जैसे खुद में खुद को मार रही है वो |

है भरी वेदना अंतर्मन में ,धरती कुछ ऐसी दिखती है ..
वक्त का दर्पण उचक उचक ,मन से थकित चकित सी है दिखती 
रखती हिसाब लम्हे लम्हे का ,हर पल को कैसे गुजर रही है वो |

वक्त आरहा है तपती ही जाती है , दिन दिन आग उगलती क्यूँ है 
मौसम ,तापमान ,प्राक्रतिक नैसर्गिकता को घोट रही सी क्यूँ है 
ह्रदयहीन मानव की अकर्मण्यता को देख ,जैसे खुद को मार रही वो |

अब चीखेगी फिर ,बोल् चुकी पहले भी करती रही आगाह मनुष्य को 
ममत्व का क्या हिसाब चाहिए ? ,सन्तान का ध्यान दुलार चाहिए ,
अरे सम्भल ,समझ क्यूँ रंग बदल , मानवता को अब उजाड रही वो |--विजयलक्ष्मी


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