रूह का अहसास खोया सा लगा बाजार में ,
रूह से जुदा होना मंजूर ही न हुआ ...
हमें गाँव की सोंधी महक रास आती है ज्यादा ,
शहरीकरण यूँ होना मंजूर न हुआ ..
खो रहे थे कहीं इंसानी वजूद बिक गए हों जैसे,
दीप को बुझाना यूँ मंजूर न हुआ ..
वो ही भले कच्चे मकां महक तो अपनी थी ,
इत्र फुलैलों सी दुनिया मंजूर न हुआ ..
मेरे वतन की महक झाँसी से किस्से किताब ,
ये अल्फाज मंगे हुए से मंजूर न हुआ ..
बाजारीकरण भी यहाँ बाजारू सा ही लगता है ,
तहजीब ओ अजीम खोना मंजूर न हुआ ..
कह दो तमाशबीनों से न टुकड़े करे वतन के ,
खंजर का ठिकाना भी बदली न हुआ ..--विजयलक्ष्मी
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