गीली लकड़ी से जल रहे है खुद में हम
है तपिश भीतर भीतर उपर से है नम ..
वक्त ए सिला मौत का चल आ ही गया
बददुआ से जिए है, हर जिंदगी में हम ..
ए जमीं तू ही निगल ले मुझे होश न देना
होश में आये भी तो फिर से मरेंगे हम ..
आवाज अब मुझे खुद की भी सुनती नहीं
ये कौन दुनिया? इसमें खोना चाहते है हम .
बहुत हुआ चाँद सितारों का साथ ए आसमा ..
सूरज को कह जलाए, जलना चाहते हैं हम .
जमींदोज कर दे इस तरह कोई हुआ न हों ..
स्पंन्दन का भी ,न खुद का पता पाए हम ..---विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment