Saturday, 9 August 2014

" तुम सौदागर ठहरे और हम बेजार बाजार में बेकार "

कुछ शब्द बह गये अहसास की नदी बनकर 
कुछ अटल हो खड़े हैं हिमालय से आत्मा के उसी छोर 
जहाँ तुमने कहा था मेरे शब्द शूल बनकर चुभते हैं और बहती है धारा दर्द की बीन लिए घुन लगे शब्द 
तुम भी जब देखकर नजर फेर लेते हो 
दरक जाता है पूरा पहाड़ बिखर कर सडक पर रोक लेता है राह 
फूटता है स्त्रोत जब मिलेगी रौशनी शब्दों की लालटेन से जगमग जिन्दगी महकती है 
दहकती है सूरज सी ...देव दर्शन दुर्लभ होते हैं सुना था 
लो सफर शुरू कहूं कारवां रुकता है कब 
टूटे हुए उसी पुल पर तार जोड़ते है 
जीवन राग रस पीते है 
जमे हुए बर्फ की वर्क से ढके हम पिघलकर आखिर बहते क्यूँ नहीं 
यही मर्यादा की परिधि है शायद 
नदी के पाट से हम बहे भी रुके भी जमे भी और पिघले और उबल गये
संघनित होकर बरस पड़ते हैं लपेटकर तुम्हारे शब्दों के धागे   
लो बंध गये न फिर से ..
छनकते शब्द बज उठे त्यौहार से 
किसने कहा व्यापर से 
तुम सौदागर ठहरे और हम बेजार बाजार में बेकार 
हसरत भरी निगाह से देखते हैं हर बार 
स्याह सियासत की बिसात बिछी मिलती है हर जगह 
उलझकर भी पतंग सी उड़ने की चाहत.. तुम डोर क्यूँ नहीं बन जाते--- विजयलक्ष्मी 

1 comment:

  1. बहुत ही सार्थक प्रस्तुति, रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें।

    ReplyDelete