" पलटकर देखती हूँ जब कभी
एक दो बरस नहीं ...
चढती उम्र के दयार की और
दूर तक सन्नाटा बिखरा है कभी अजीब सी गंध महसूस देती है
वो गंध जो कभी सुवासित थी ,
महकती थी हवा में ,चिरैया सा चहकती सी लगती थी
वहीं कोरा सा सूनापन है
लगता है श्मशान में हूँ ,,दफन है बहुत कुछ
जहाँ से खुद को ही छोडकर विदा हुई थी
वो चौखट ,जिसके कपाट खोलना दूर छूना भी सिहरा देता है
कब अल्हड़ता के दिन बीते मालुम ही न हुआ
कब आँखों में दुसरे की इच्छाओं ने सपनों ने पलना शुरू किया ..
या मेरे ख्वाबो ने डूबना सीखना शुरू किया
छलकती और सूख जाती
सब छूटा बचपन ,आंगन ,सखिया स्कूल, घर-दर ,गाँव शहर जिला
और तो और ....नाम को पहचान देने वाले माईबाप.बहन भाई
बुआ चाचा मामा मौसी गौत्र ... किसे किसे गिनुं
दादी का प्यार बाबा का लड़ सब जैसे चलचित्र सा गुजरा
जिन्होंने सपनों को बुनना सिखाया था लील लिया उन्होंने ही
हम जीने चाहत क्यूँ भरते है लडकी में ...और ..
जब वो जीना चाहती है ...तब धीरे धीरे मारना शुरू करते हैं
त्याग कहकर मरने को उकसाते है ,नन्ही उगती कोपल को
पहले पिता भाई के हिसाब से ..
फिर दान दी हुई वस्तु बनकर पति और परिवार के अनुसार
औरत को जिम्मेदारी सौपी जाती है पुरुष को नहीं ,
मतलब सीधा ,,खुद को मारकर जियो
फिर बच्चे ....न हो तो .. अगर हो गये
करियर ये क्या होता है
अपने सपने बच्चो की आँख से देखने शुरू हुए
एक खौफ बैठा है मन में ..
मेरी बेटी को भी ..क्या मारने होंगे अपने ख्वाब मेरी ही तरह
आज उसी मोडपर खड़े देखा उसे भी ...पच्चीस बरस पीछे
उसकी आवाज में वही चिंता थी
वही स्वर वही कोरापन ..
मैं डरने लगी हूँ किससे कहूँ ,,
पुरुष नहीं जानता आँखों के ख्वाब जब बिखरते है कितनी टूटन होती है
उसे तो पूर्ण आजादी मिलती है
कोई प्रश्न नहीं उठता ..न समय का न दोस्ती का
कोई नहीं रोकता किसी भी राह से
उसपर किसी की हुकुमत नहीं चलती ,,
पुरुष हर शौक जीता है अपना ...
औरत उन्हें एक एक करके पी डालती है
और पलके नम हो गयी फिर झपकी एक लम्बी भारी सी
उन लाशों को वही छोड़ घर के बकाया काम निपटाने लगी थी
न अफ़सोस न त्याग ...
बस एक सवाल "हे नारी सिर्फ तुम ही क्यों आखिर "-- विजयलक्ष्मी
एक दो बरस नहीं ...
चढती उम्र के दयार की और
दूर तक सन्नाटा बिखरा है कभी अजीब सी गंध महसूस देती है
वो गंध जो कभी सुवासित थी ,
महकती थी हवा में ,चिरैया सा चहकती सी लगती थी
वहीं कोरा सा सूनापन है
लगता है श्मशान में हूँ ,,दफन है बहुत कुछ
जहाँ से खुद को ही छोडकर विदा हुई थी
वो चौखट ,जिसके कपाट खोलना दूर छूना भी सिहरा देता है
कब अल्हड़ता के दिन बीते मालुम ही न हुआ
कब आँखों में दुसरे की इच्छाओं ने सपनों ने पलना शुरू किया ..
या मेरे ख्वाबो ने डूबना सीखना शुरू किया
छलकती और सूख जाती
सब छूटा बचपन ,आंगन ,सखिया स्कूल, घर-दर ,गाँव शहर जिला
और तो और ....नाम को पहचान देने वाले माईबाप.बहन भाई
बुआ चाचा मामा मौसी गौत्र ... किसे किसे गिनुं
दादी का प्यार बाबा का लड़ सब जैसे चलचित्र सा गुजरा
जिन्होंने सपनों को बुनना सिखाया था लील लिया उन्होंने ही
हम जीने चाहत क्यूँ भरते है लडकी में ...और ..
जब वो जीना चाहती है ...तब धीरे धीरे मारना शुरू करते हैं
त्याग कहकर मरने को उकसाते है ,नन्ही उगती कोपल को
पहले पिता भाई के हिसाब से ..
फिर दान दी हुई वस्तु बनकर पति और परिवार के अनुसार
औरत को जिम्मेदारी सौपी जाती है पुरुष को नहीं ,
मतलब सीधा ,,खुद को मारकर जियो
फिर बच्चे ....न हो तो .. अगर हो गये
करियर ये क्या होता है
अपने सपने बच्चो की आँख से देखने शुरू हुए
एक खौफ बैठा है मन में ..
मेरी बेटी को भी ..क्या मारने होंगे अपने ख्वाब मेरी ही तरह
आज उसी मोडपर खड़े देखा उसे भी ...पच्चीस बरस पीछे
उसकी आवाज में वही चिंता थी
वही स्वर वही कोरापन ..
मैं डरने लगी हूँ किससे कहूँ ,,
पुरुष नहीं जानता आँखों के ख्वाब जब बिखरते है कितनी टूटन होती है
उसे तो पूर्ण आजादी मिलती है
कोई प्रश्न नहीं उठता ..न समय का न दोस्ती का
कोई नहीं रोकता किसी भी राह से
उसपर किसी की हुकुमत नहीं चलती ,,
पुरुष हर शौक जीता है अपना ...
औरत उन्हें एक एक करके पी डालती है
और पलके नम हो गयी फिर झपकी एक लम्बी भारी सी
उन लाशों को वही छोड़ घर के बकाया काम निपटाने लगी थी
न अफ़सोस न त्याग ...
बस एक सवाल "हे नारी सिर्फ तुम ही क्यों आखिर "-- विजयलक्ष्मी
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