Wednesday, 6 August 2014

कन्या के ऊपर ही उठते है हथियार....||




"माँ सच कहना क्या बोझ हूँ मैं 

इस दुनिया की गंदी सोच हूँ मैं 
क्या मेरे मरने से दुनिया तर जाएगी 
सच कहना या मेरे आने ज्यादा भर जाएगी
क्यूँ साँसो का अधिकार मुझसे छीन रहे हो 
मुझको कंकर जैसे थाली का कोख से बीन रहे हो 
क्या मेरे आने से सब भूखो मर जायेंगे 
या दुनिया की हर दौलत हडप कर जायेंगे 
पूछ जरा पुरुष से ,
"उसके पौरुष की परिभाषा क्या है "
जननी की जरूरत नहीं रही या 
जन लेगा खुद को खुद ही ?
हर मर्यादा तय करके भी उसको चैन नहीं 
भोर नहीं होती जब होती रैन नहीं 
कह देना कह देना दुनिया में तो उसको मुझे लाना होगा 
वरना आगमन को पुरुष को खुद ही समझाना होगा 
जितना मुझको लील रहा है कह देना 
दर्द बेटे न मिलने का फिर सह लेना 
वंशबेल की शाख अधूरी रह जाएगी 
पूरी होगी तभी 
जब लडकी धरती पर आएगी " "

.--- विजयलक्ष्मी




" तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ "

जानती हूँ समाज बदल गया यही आवाज उठेगी ..किन्तु अंतर्मन में झांककर सच का आइना सामने रखकर बोलना ..क्या वाकई में हम और हमारा समाज इतना बदल गया है ...या अभी भी कोई कमी है ..

एक सत्य अटल सा ..
फिर क्यूँ झुठला जाती है उसे 
औरत की मृत्यु ..
फिर भी दिखती है जिन्दा 
कितनी बार मरी या मारी गयी 
जन्म से से पहले से शुरू हुयी कवायद 
सम्भावना जगत में जीव के आने की..
पहला डर--लडकी तो नहीं ..मर गयी वो उसी पल ..इसी खौफ से 
जाँच में पाया गया ..लडकी ही तो है ..
उफ़ ..लडकी ,,नहीं चाहिए ..फिर मरी अहसास से 
उसके बाद की कवायद ..
टुकड़ों में काट काटकर
एक औरतनुमा जीवनदायिनी ने मुक्ति देदी ...
एक पुरुष के जिम्मेदारी से भागने पर ..
और वो वही मर गयी ...समर्थ पिता की असमर्थ बेटी जो ठहरी .
गर यहाँ बच गयी किस्मत की मारी ..मरेगी जन्म के समय ..
खबर में उतरा चेहरा लिए जब सिस्टर आई और बोली ..
लक्ष्मी आई है ...और पिता थूक भी सटक नहीं सकेंगे सदमे में ..
वो मर जाएगी समझ आने से पहले ...क्या हुआ ?
फिर मरेगी अक्सर भूख से रोते रोते ...माँ को जब फुर्सत न होगी काम से
बिलख बिलखकर रोते रोते कितनी बार साँस टूटती टूटती जुड़ेगी मेरी ..
या हो सकता है धतुरा ही चटा दिया जाये आँखे के ढूध में मिलाकर ..और मुक्त ,
न कर पाई कोई दाई या चाचा चाची कोई ये काम ..साँस न टूटी गर ..
जिन्दा से शरीर में होगा फिर मरण जब चलेगी पैरो पर और दौड़ेगी बाहर को
या आगमन होगा नये शिशु का भाई बनकर ..
उसकी खुशियों का अम्बार मेरी मुस्कुराहट तो छीन लेगा ..
वंशबेल बढ़ी चिराग है घर का और मैं पराई ..पैदा होने पर हुई या पहले से थी..
आजतक भी समझ नहीं पाई
ख्वाब छिनने थे छिनने लगे ..काम के नाम पर
औरत जात थी न मैं
हर ख्वाब के साथ मरती और फिर जिन्दा हो जाती अगला ख्वाब आँखों में बसाए
घर के काम से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई ..
भाई डॉक्टर या इंजीनियर जो भी बनना चाहे ..
मुझे कॉलेज की पढ़ाई भी प्राइवेट ही कराई ..
अब मैं भूल रही थी मरना अपना जिन्दगी के हर कदम पर ..
हर कांटे का दंश जैसे जीवन सिखलाता चलता था
जीवन की निराशा में भी मैंने हंसना सिख लिया था ..
पराई थी पराई कर दी गयी ..
ख्वाब पिता का ..इज्जत खानदान की कांधे धर दी गयी
और ..फिर नया सा ख्वाब सजाया पलकों पर ..
पर गरीबी और औरत होने ने पीछा नहीं छोड़ा
पराई आँखों ने दहलीज के भीतर भी देह को नहीं छोड़ा
लेकिन मैंने भी फिर से अगले ख्वाब को सजाना नहीं छोड़ा ..
कभी देह से कभी नेह से समाज ने बलात प्रहार किये
जख्म मिले जितने उतनी मेहनत और सफाई से मैंने सिये
ठान लिया मन में किसी भी जख्म को पैबंद सा नहीं लगने दूंगी
फिर एक नन्हीं सी परी ...उसे नहीं मरने दूंगी ..किसी लम्हे को दुबारा नहीं गुजरने दूंगी
लेकिन क्या एसा ही हो पाया ..क्या घर समाज पुरुष इतने आजतलक बदल पाया
हर मुमकिन कोशिश फिर भी बच्चों की हंसी में अपना खोया बचपन जी लेती हूँ
टूटते हुए ख्वाब के जख्म फिर फिर सी लेती हूँ ..
औरत हूँ न हर मना के बाद भी उड़ान हौसले की उड़ लेती हूँ ,,
मरती हूँ भीतर से या टूटकर जी लेती हूँ ,,
कैसा भी हो जहर अब तो बिन आवाज बेखटके पी लेती हूँ
कोशिश भी करती हूँ लड़ने की ..
कदम दर कदम मंजिल पकड़ने की
कहीं कुछ तो है ...बार बार मरती हूँ ...पर जिन्दगी जी लेती हूँ
औरत हूँ न ...पंख धरे गिरवी जैसे चिरैया के ..
लेकिन उड़ान हौसले की रूह से आज भी उस लेती हूँ
मौत भी हार रही है हरा हराकर मुझको ,,
मैं जो भी जैसी भी ..किसी से नहीं लड़ सकती गर खुद से तो अब लड़ लेती हूँ
मैं औरत हूँ ..इल्जाम और चुप्पी का नाता बहुत पुराना है
ये समाज एसा ही है हर युग में इसको एसा ही आना है
मैं हूँ आधी दुनिया कहने को ..
फिर भी तेरी आधी दुनिया को पूरा कह देती हूँ
मैं औरत हूँ ...हौसले का दूसरा नाम हूँ ..
तुझको जिन्दा रखकर भी जिन्दा रह लेती हूँ--- विजयलक्ष्मी 





सोचो तो ...
फिर से जीना पडेगा तुम्हारे संग ..
वो ही एक कड़वा सच ..
जिसके साथ मैं भी बडी सब कुछ ..
बदलने की चाह ..

भारी पड़ रही है और फिर वही ..
कुछ नहीं बदला ..
हाँ तरीके बदल गए है दिखावा है
भीतर से नहीं ..
मर जाओ कोख में ही मेरी तुम अब ..
बेटी के लिए ..
नहीं चाहिए ये जिंदगी ये सोच मुझे ..
मत आ दुनिया में ..
संदेश,उपदेश ,सिर्फ ढंग बदले है ..
असलियत भयावह ..
दहेज नहीं स्टेटस चाहिए लड़की का ..
गोरा रंग मानक ..
सावंली मतलब काली ,जैसे गाली दी हों ..
नौकरीशुदा ही हों ..
घर के काम में माहिर, किसी से बात न करे ..
पर व्यवहार कुशल हों..
पढ़ी लिखी होस्टल में किन्तु सीधी हों
धनवान की बेटी हों ..
ख़ूबसूरती भी अभिशाप होगी तुम्हारी ..
ठहरेंगी नजरे पापी तुमपर ..
मत आओ दुनिया में ..जाओ चली जाओ ..
आभी तलक भी ..नहीं बदली ..
शायद कभी न हों पाए अच्छी दुनिया ये ..
सोच वही न बदली है ..
नहीं चाहिए ...दिखती सी आजादी बस ..
मीठे शब्दों के खंजर ..
एक ऐसा नौकर जो सबकुछ सुने और चुप ..
दर्जा बराबर का ही है ..
असलियत तो जीने वाला जाने साथ सदा ..
ईश्वर को कहना --
खुद बन लड़की दुनिया में जी हिम्मत कर ..
तू लौट जा अब भी
मेरी प्यारी राजदुलारी आंसूं मंजूर मुझे मेरे ..
कैसे पियूंगी तेरे आंसूं ..
न कर जिद आने की पछताना न पड़े दोनों को ..
छोड़ दे जिद अब ..
माँ कुलटा नासपीटी कंगले घर की ठीक सही
पर तू क्यूँ बने ..
और लौट जा ....लौट जा ...परदेस वापिस ..
अंग कटेंगे मंजूर ये दर्द ..
ये कुछ वक्त का दर्द न टीसेगा जीवन भर ..

3 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (08.08.2014) को "बेटी है अनमोल " (चर्चा अंक-1699)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. आज मैं रोना चाहती हूं,वैसे तो रोती सी रही हूं---पर आज मैं रोना चाहती हूं--
    औरों के लिये.
    ये दंश---खबरों के भेष में नजरें उठने नही देते---और झुकाऊं भी तो कब तक???

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