" हाँ करती हूँ प्रेम ..
पूजती हूँ तुम्हे ..
क्या तुम देह मात्र ही हो यदि हाँ ..तो
तुम वो नहीं ..
जिस स्वरूप को प्रेम किया जाए
देह ,बंधन ,सीमाए ,सरहद, धर्म ..
इनसे उपर उठकर ..पहचान सकते हो मुझे
मैं ,मात्र देह नहीं हूँ
प्रेम ही हूँ
माँ ,बहन , पत्नी ,सांसारिक प्रेयसी या दुहिता
सब कुछ के उपर भी हूँ
आत्मिक प्रेयसी
शंका रहित ,,
जिसमे थोड़ी मानिनी थोड़ी भामिनी
थोड़ी प्रकृति ..पूर्ण स्वीकृति
थोड़ी मंशा पूरा ध्यान
थोड़ी भूख सूखे खलिहान
भाव की बरखा
नेह का जल रिश्ता पलपल
राग विराग रस रंग निखरते रंग बिखरते ढंग सब शामिल है
कहो कौन सा राग विरत है
दोस्ती के रंग से भरा हुआ है जो
झूठ में भी एक अंश सत है ..इसीलिए उसका वजूद है
वजूद किसका तुम्हारा ,,मेरा .....या हमारा
हम है तो वजूद सम्भव है
मैं और तुम
अधूरे अपूर्ण है ..अपूर्णता तो अस्तित्व विहीन होती है
इसीलिए ..
तुमने राम बन अश्वमेध यज्ञ के लिए मूर्ति बनवाई थी मेरी
यज्ञ तो हो ही जाता मेरे बिना भी
चरित्र पर लांछन के पश्चात भी मेरी उपस्थिति ,,
नहीं बोल सके थे मुखर होकर जो सत्य ...
स्थापित किया था मुझे बिठाकर अपने साथ
" मूर्ति रूप में "
हे राम ...दुनिया कुछ भी कहे
कितने भी सवाल उठाये ..
किन्तु सीता का विश्वाश तो उसी दिन खरा उतर गया था
जब तुमने मन धारा था ये विचार ...
और
दुनिया ने मेरी मूर्ति देख ली थी बराबर में
वो दुनिया का सत्य था
जीवन यज्ञ आहुति तो तभी पूर्ण हो चुकी थी
व्ही प्रेम है ,,देह तो वनवासी थी उस समय भी
शायद समझ सको मर्म जीवन दर्शन और मनन ..
वास्तविकता से कितनी अलग
ये लीलाए कितने कौतुक अभी बाकि है
उलटने पलटने से समझ आती तो कुछ भी नहीं मैं
बस बहती सी नदी अनवरत
तुम्हारे बगीचे के एक कोने में खड़ा वो ठूठ
पुष्पित वल्लरी भी हूँ
गरीब लाचार की आँख का खारा पानी भी हूँ
मेरा वजूद ..खुद में ढूंढ तस्वीर तो ...वही मूर्ति है यज्ञ में रखी हुई
मेरे विश्वाश को द्रढ़ता से सम्बल प्रदान करती एक कसौटी मात्र ".---- विजयलक्ष्मी
पूजती हूँ तुम्हे ..
क्या तुम देह मात्र ही हो यदि हाँ ..तो
तुम वो नहीं ..
जिस स्वरूप को प्रेम किया जाए
देह ,बंधन ,सीमाए ,सरहद, धर्म ..
इनसे उपर उठकर ..पहचान सकते हो मुझे
मैं ,मात्र देह नहीं हूँ
प्रेम ही हूँ
माँ ,बहन , पत्नी ,सांसारिक प्रेयसी या दुहिता
सब कुछ के उपर भी हूँ
आत्मिक प्रेयसी
शंका रहित ,,
जिसमे थोड़ी मानिनी थोड़ी भामिनी
थोड़ी प्रकृति ..पूर्ण स्वीकृति
थोड़ी मंशा पूरा ध्यान
थोड़ी भूख सूखे खलिहान
भाव की बरखा
नेह का जल रिश्ता पलपल
राग विराग रस रंग निखरते रंग बिखरते ढंग सब शामिल है
कहो कौन सा राग विरत है
दोस्ती के रंग से भरा हुआ है जो
झूठ में भी एक अंश सत है ..इसीलिए उसका वजूद है
वजूद किसका तुम्हारा ,,मेरा .....या हमारा
हम है तो वजूद सम्भव है
मैं और तुम
अधूरे अपूर्ण है ..अपूर्णता तो अस्तित्व विहीन होती है
इसीलिए ..
तुमने राम बन अश्वमेध यज्ञ के लिए मूर्ति बनवाई थी मेरी
यज्ञ तो हो ही जाता मेरे बिना भी
चरित्र पर लांछन के पश्चात भी मेरी उपस्थिति ,,
नहीं बोल सके थे मुखर होकर जो सत्य ...
स्थापित किया था मुझे बिठाकर अपने साथ
" मूर्ति रूप में "
हे राम ...दुनिया कुछ भी कहे
कितने भी सवाल उठाये ..
किन्तु सीता का विश्वाश तो उसी दिन खरा उतर गया था
जब तुमने मन धारा था ये विचार ...
और
दुनिया ने मेरी मूर्ति देख ली थी बराबर में
वो दुनिया का सत्य था
जीवन यज्ञ आहुति तो तभी पूर्ण हो चुकी थी
व्ही प्रेम है ,,देह तो वनवासी थी उस समय भी
शायद समझ सको मर्म जीवन दर्शन और मनन ..
वास्तविकता से कितनी अलग
ये लीलाए कितने कौतुक अभी बाकि है
उलटने पलटने से समझ आती तो कुछ भी नहीं मैं
बस बहती सी नदी अनवरत
तुम्हारे बगीचे के एक कोने में खड़ा वो ठूठ
पुष्पित वल्लरी भी हूँ
गरीब लाचार की आँख का खारा पानी भी हूँ
मेरा वजूद ..खुद में ढूंढ तस्वीर तो ...वही मूर्ति है यज्ञ में रखी हुई
मेरे विश्वाश को द्रढ़ता से सम्बल प्रदान करती एक कसौटी मात्र ".---- विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment