" तहजीब आई नहीं जमीर कोडियों के भाव का
न मुकद्दर के सिकन्दर थे क्या करते ईमान का
सफर चलते हुए वो तलाशते चले थे जेहनियत
बेतरतीब ठौर देख ठहरे गोया किस्सा तमाम था
किताबी पढ़ाई तो हमने पढ़ी थी नहीं गौर से
जिन्दगी को सीखने की हिम्मत होना हराम था
किस्सागोई होती तो सुनाते लज्जत लपेटकर
पुरखो के खेत में ही तो बस कांटे बोना तमाम था
संसद में जितने बैठे, थे नमाजी या पुजारी सब
सच के विज्ञापन में लिखा वो नंगों का हमाम था "--- विजयलक्ष्मी
न मुकद्दर के सिकन्दर थे क्या करते ईमान का
सफर चलते हुए वो तलाशते चले थे जेहनियत
बेतरतीब ठौर देख ठहरे गोया किस्सा तमाम था
किताबी पढ़ाई तो हमने पढ़ी थी नहीं गौर से
जिन्दगी को सीखने की हिम्मत होना हराम था
किस्सागोई होती तो सुनाते लज्जत लपेटकर
पुरखो के खेत में ही तो बस कांटे बोना तमाम था
संसद में जितने बैठे, थे नमाजी या पुजारी सब
सच के विज्ञापन में लिखा वो नंगों का हमाम था "--- विजयलक्ष्मी
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