प्रेम न जिज्ञासा है न पहचान है ....प्रेम बस प्रेम है ..कोई भी इतर भाव अगर इसमें शामिल हुआ तो समझ लीजिये मिला हो गया प्रेम का उज्ज्वल और स्निग्ध आंचल ...प्रेम के लिए यत्न नहीं किया जाता ...ये स्वत:स्फूर्त है ...ये न बिकाऊ होता है न किसी में खरीदने की औकात है.... किसी में ...जिसमें मिला उसमे ईश्वर विराजते हैं ..देह की चाहत प्रेम नहीं है ..दर्शन की इच्छा आँखों की संतुष्टि भाव है जो सरल होकर रसधार प्रवाहित करती है मधुरम स्वरूप की......पाना ही प्रेम नहीं है ......स्व का खोना भी प्रेम है ...देह आकर्षण मात्र है ...शब्द तो अधूरी सी अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है ......जो निश्छल और निस्स्वार्थ भाव है वही प्रेम है ....विस्तृत पटल है प्रेम का ,,,हम ज्यादातर लोग एकांगी व्यवहार को प्रेम मान बैठते हैं ...प्रेम देह से इतर ही शुरू है और देह तो मर्यादा रेखा में बंधी हैं प्रेम सांसारिक मर्यादाओ के बहुत उपर है मृत्यु और जन्म से परे है ...और .."वात्सल्य तो उसका सारांश मात्र है ".---- विजयलक्ष्मी
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