" समय तो अपनी ही गति से चल रहा ,
लेकिन ..पूछने का मन है
अभी तक गुजरा क्यूँ नहीं
कदम समय के ठहरे हैं
या हमारे घोड़े की गति तीव्र हो चुकी
समझ नहीं आया ...
समय के घोड़े से तेज चलता है कौन
रात ढलती क्यूँ नहीं दुनियावी
या पलके खुली है और समय निद्रामग्न है
क्या यही भोर के संकेत है
कालिख भरी रात सुरमई होने लगी
वृक्ष जो निर्जीव से लगते रहे थे आजतक
लग रहे है जिन्दा ..मुझमे
पीले हुए पत्ते हरे क्यूँकर लगने लगे
जीवन संध्या ने सिंदूरी ओढ़नी क्यूँकर धारी
जिन्दगी का सूरज डूबने की कगार पर चला
या इन्द्रधनुष उतरा है मेरे भीतर चटकीले रंग लिए
समय ,,,समय से इतर हुआ क्यूँकर
समय तो अपनी ही गति से चल रहा ,
लेकिन ..पूछने का मन है
अभी तक गुजरा क्यूँ नहीं
कदम समय के ठहरे हैं
या हमारे घोड़े की गति तीव्र हो चुकी
समझ नहीं आया ,
बताओ तो ..
क्या तुम कुछ समझ पाए
पहचान सकोगे समय के घोड़े को "--- विजयलक्ष्मी
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