Tuesday, 19 August 2014

" होती रही बरसात भी मेरी टूटी सी छान से "

सुना है ईमान का बाजार लग गया चौराहे
कोई खरीददार मिले तो बताना ईमान से

बहुत शोर है भीतर जब खला को खंगाला
अनजान राहों का पता पूछे कैसे पैगाम से

रंग औ नूर जो बरसता है शहादत ए वतन
देखते रहे गुजरा  कारवा हम खड़े हैरान से

जलाती रही धूप भी छाया ढूंढे नहीं मिली
ठूठ से खड़े हम हुए बिन छत के मकान से

न रकीब की रकीबत न अदावत नसीब की
होती रही बरसात भी मेरी टूटी सी छान से -- विजयलक्ष्मी 

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