हे पार्थ उठो ,
बहुत सो चुके तुम ,
मैं कृष्ण ,बिराजता हूँ तुम्हारे भीतर ,
कर्तव्य की रणभेरी बजाओ .
शब्दों को गुजार करो ,
शंखनाद करो ,
आह्वान करो नित नये प्रकाश को
जागो ,,
भोर का सूरज बनो
प्रकाशित करो ..जन जन के मन को
तुम्हे अपने भीतर के भय को भगाना है
फैले अंधकार से लड़ना है
जीवन हवनकुंड बनाओ
कर्तव्य की आहुति
और स्नेह घृत के साथ
है पार्थ विराजता तुममे
खुद को बजाओ
आत्मा को जगाओ ..आर्तनाद नहीं शंखनाद करो
उठो ,
जीवन नैया का तुम्हे ही खिवैया बनना है तुम्हे ही पतवार ,
उठो इसबार ..
धारो अवतार ..हे भद्रे ..
मैं कर्तव्य प्रेम से जागृत होता हूँ
तुम्हारे भीतर निवास करता हूँ ,
तुम कृष्ण हो कृष्णमय हो जाओ
जागो ,भ्रमित मत हो
ज्न्माओ मुझे ..
मठ मन्दिरों में नहीं ..
अपने अंदर ,
अपनी आत्मा में
अपने अंतर्मन में
गुंजित करो मुझे
तभी मैं पूजित हो सकूंगा
मैं रथ सारथि हूँ
गांडीव तुम्हे उठाना होगा --- विजयलक्ष्मी
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