Sunday, 13 October 2013

उठती है हुक छितरा जाती है ख़ुशी की घड़ियाँ ,


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उठती है हुक छितरा जाती है ख़ुशी की घड़ियाँ ,


घूमते है चलचित्र नजर में शब्द कम बयाँ को लड़ियाँ 

माओ की फटी धोती से तन दहकती है दस साल की बेटी 

व्ही साडी जिसे ठकुराइन ने पर के बरस दी थी पोता होने ख़ुशी में

बर्तन घिसते हुए पीतल के ...

चूल्हे की राख से हथेली की लकीरे घिसने लगी थी उसकी

किस्मत तो देखिये ...भगवान को भी दया नहीं उसपर 

जंगल से बीनते हुए मरद को कीड़े ने काट खाया ...बेटा मर गया बीमारी से 

अब भरती है पेट बर्तन मांजकर खुद का और बेटी का लाचारी से 

एक गैया थी .छोटी ..बछिया सी सलोनी ..उठाकर लेगया महाजन ..अनाज के बदले में ...

बेटी भी लगती है रोज बढती है दुगुनी होकर 

डर लगने लगा है घर से निकलना बंद करूं सोचती है ...

साहूकार की नजर से गुजरकर ..-- विजयलक्ष्मी

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