चाँद चल ही दिया आखिर
कितने ख्वाब रुके थे उसकी पलको पर
वक्त वक्री गति लेकर गुजरा और इन्तजार और भी लम्बा हो गया
जानती हूँ तारो की छाँव में ओस से मोती समेटे होंगे तुमने भी
कुछ याद बाक़ी है अभी शेष
दीखते अवशेष हैं शिकस्ता हुए सहर के खण्डहर पर
कुछ हिचकियाँ भेजी जो तुमने सम्भाल कर रखली बंधकर खुद में
खोलेंगे उन्हें फुर्सत के लम्हों में ...दिन दोपहर जब ख्वाब सब खो चुके होंगे
तारे नींद की आगोश में सो चुके होंगे ...जुगनू से अहसास चमकते होंगे
इतिहास दोहराता है खुद को हमने सुना था ...
फिर लौटता क्यूँ नहीं वक्त वो पहला सा
जब लहर लहर उन्माद सा था और ख्वाब जगाते थे तुम्हे वतन के नाम पर
और बिफरते थे तुम किसी नेता की खोखली सी बात पर
सोचती रही खत लिखूं तुमको ...मगर नहीं लिखा
क्यूँ लिखूं ...और क्या लिखूं ..बताओ ..
तुम कभी बताते ही नहीं खत मिला भी या नहीं ...
हां ..डाकिये से चर्चा हुयी थी कल भी तुम्हारी और वो भी हंसकर टाल गया
नहीं मालूम ये इंतजार अभी और कितना है बाकी
आँखों ने देखा होगा नजारा ...कान बेजार क्यूँ होने लगे हैं आजकल
कदम ठहर से जाते है बढ़ते बढ़ते ..क्योकि तुम रोक देते हो हमेशा
गहमी सी सुबह है लेकिन सूरज अभी दिखा नहीं ...बादल गहरे हैं .--- विजयलक्ष्मी
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