Friday, 4 October 2013

गरीब का चुल्हा आग को तरसा न होता

शब्दों से भर जाता पेट गर ...
दुनिया में कोई भी तो भूखा न सोता .

अपनापन खत्म न होता गर 
इंसान कोई इतना भी तन्हा न होता .

अमीर रोटी को न फेंकता गर 
किसी गरीब का बालक भूखा न रोता .

भूख का पता न चला उम्रभर 
एक रोटी को तरस भूखा मरा न होता .

ये सूरज धरती पे जलता गर
गरीब का चुल्हा आग को तरसा न होता .- विजयलक्ष्मी 

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार - 06/10/2013 को
    वोट / पात्रता - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः30 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


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    1. दर्शन जी आपका बहुत बहुत आभार

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  2. ये सूरज धरती पे जलता गर
    गरीब का चुल्हा आग को तरसा न होता
    अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है
    सुरेश राय
    कभी यहाँ भी पधारें और टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें
    http://mankamirror.blogspot.in

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