Monday, 7 October 2013

"माँ "तुम दिखती नहीं बसी हो मुझमे ही कहीं .

"माँ "तुम दिखती नहीं बसी हो मुझमे ही कहीं ..
आवाज घुमड़ कर मुझमे ,मुझमे ही समा जाती है ,
तुम साथ हो मेरे ये अहसास दिला जाती है 
मेरी रगों में दौड़ता है जो लहू तुम्हरी दी हुयी वो चेतना है 
और बेचैनी है नजरों में तुम्हे न ढूंढ पाने की 
स्वप्न जी तुमने दिए थे आँख में को मेरी समेटे है मैंने 
बहती नदी जो वक्त की उसमे यादे है तुम्हारी 
और एक बंद मुट्ठी जिसमे चंद लकीरे उकेर डाली वक्त ने 
जीते है आज भी उन्ही लम्हों में तुम्हारा हाथ थामकर
सफर जो करना चाह तुम्हारे साथ मगर तुम चल दिए
उसी अहसास में चल रहे है इस डगर ..
और स्नेह तुम्हारा बांधकर रख लिया साथ अपने
नहा लेते है और आचमन भी उसी से ...मुझमे बहते हो सदा
आंगन छूटा अपना दर छूटा सखियाँ छूटी ...
नहीं छूता तो तुम्हारे साथ का अहसास जो जिन्दा है वर्षों बाद भी मुझमे
डगर इम्तेहान की तुम दिखा गये जो चल रहे हैं
श्रद्धा है श्राद्ध का हक मुझे मिला नहीं ..
पुकारना चाहते हैं बार बार ..कोई दर खुला मिला नहीं
और खुद में बसा कर घूम रहे है अब हर डगर
तुम्हारा प्यार देता है अवलम्बन हर टूटते पल में मुझे
दुनिया से शिकायत क्या करे
चले आयेंगे फिर तुम्हारे पास तुम ठहरो जरा
मुझे जिन्दगी के लम्हों का करना है हिसाब ..
आहत आहटों का लिखना है हिसाब ..तुम ठहरो जरा
और फिर चले आएंगे..दूर इस दुनिया से ...चैन से सोने .- विजयलक्ष्मी 

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