Sunday 12 August 2012

जानते हों सच को ....


















ठूंठ से ,...यही पहचान बन गयी है अब हमारी ,

जंगली पौध ....हंसी आती है खुद पर ....आज ,
हमारा ईमान इतना कमजोर कैसे हुआ ..
खो गया टूट कर बिखर गया रेजा रेजा ,
ऐसा भी कोई जादू है क्या ...तुम हम बन गए ?
वाह ...खाइयों के दुसरे किनारे परकोटे बनाकर दीवारों से बात ..
कुछ अजब सा नजर होगा ...
नैतिकता के किनारे पट बैठी नाव ...
नदी में बही जा रही थी ...किसने लगाम खींची थी 
रथ के पहियों की ,वक्त को बांधा था 

किसने  ?
कसौटियों की हर पराकाष्ठा को कसा था किसने ..
वो कौन था चलती बंदूकों की आवाजों के पीछे ..
मेरी देह को खत्म कर विलीन करने वाला वो कौन ?
वेदना सम्वेदना से रिश्ता बन गया चलो कुछ तो हुआ ..
मेरी उपासना ,तपस्या या ...उन्वान देह के क्या हैं ?
जानते हों सच को ....तुम्हे पता है ...
सीधी सी राह को इतना कितना खोद डाला तुमने .....
लहुलुहान है सबकुछ ...मरहम भी बेअसर होने लगा ..
फिर भी हंस लेते है हम ....भूलना चाहते थे खुद को ..
मगर हर बार मुझे याद कराया ...
कलम से उकेरी उन तस्वीरों को देखा है हमने ...
और हम मर गए ..- विजयलक्ष्मी

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