निकहत ए गुल गुलशन की आकर देख जाता है ,
कभी नदिया कभी अम्बर, कश्ती से भेंट जाता है .
सुरों के बीच आकर भी गुनगुनाना भूल जाता है ,
मौसम सर्द हों कितना ,पतझड सा छेड जाता है .
पहाड़ी झरने सा गिरकर ,नदी सा गहर जाता है ,
थर्राता है समन्दर सा,और चातक सा टेर जाता है .
जमीं जंगल की, मुहर खेत की सरकारी चाहता है ,
उठाना चाहता तुफाँ ,खुद ख्वाबों को बेच आता है.
पैमाइश ए जमीं ,क्यूँ उसपे अश्कों को गिराता है,
तपिश सूरज,तमन्ना चाँद,पौधों को देख जाता है.
- विजयलक्ष्मी
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