हाँ ,मेरी रोटी सूखी ही सही ,
सच तो ये की वही भाती है हमे ..
क्या दुसरे की घी लगी से मैं बहक जाऊं ...
सोचना भी मत कभी ..
माँ के हाथ के खाने का स्वाद अनोखा होता है ....याद रख,
बासी रोटी भी मधुरता लिए होती है ..प्यार का अहसास होता है उसमे ..
सच तो ये की वही भाती है हमे ..
क्या दुसरे की घी लगी से मैं बहक जाऊं ...
सोचना भी मत कभी ..
माँ के हाथ के खाने का स्वाद अनोखा होता है ....याद रख,
बासी रोटी भी मधुरता लिए होती है ..प्यार का अहसास होता है उसमे ..
वो कहीं नहीं मिलेगा ,....मालूम है हमे ..
दुनिया की सैर भी चैन नहीं देगी जानते है इस बात को ...
तसल्ली तो उसी में है संतुष्टि भी वही है ..
वो सूखी रोटी और उसमे समाई सोंधी सी महक .. घर के चूल्हे की
हरी चटनी की बात कहीं और नहीं ...
ये पञ्च सितारा होटल तो दिखावे की दुकान है ..
पैसे का खेल है ...पेट की भूख का नहीं ...
ये आग नहीं बुझायेगी ....
यहाँ तो सभ्यता का नंगा नाच होता है
और लोगों को जाने क्यूँ वही भाते है ...
विडम्बना हम अपने घरों का स्वाद भूल गए ..
भूल गए माँ के हाथ का सोंधापन लिए वो प्यार ...
दुलार और ममता भरी वो गोद और प्यार का वो आंचल ..
बचा लेता था दुनिया की हर आफत से मुझे ...
बहुत चैन था वहाँ ..माँ ...तुम खो क्यूँ गयी मुझसे ...
काश के लौट आते वो दिन ,वही वक्त ,वही बेख़ौफ़ सा बचपन ..
और नीम के पेड़ के नीचे खेलना और झूलना .
घांव के खुले से मैदान का बरगद दादा
मिलने को मन बहुत करता है पर कैसे आऊँ
तुम तो चली गयी ....आ जाउंगी किसी रोज ..
तुम आवाज दे देना उसी छोर से
और मैं सब छोड़ चलो आऊँगी . ये दुनिया कैसे रोक पायेगी फिर भला ,
बहुत याद आती है वो छांव हमे तो ....- विजयलक्ष्मी
दुनिया की सैर भी चैन नहीं देगी जानते है इस बात को ...
तसल्ली तो उसी में है संतुष्टि भी वही है ..
वो सूखी रोटी और उसमे समाई सोंधी सी महक .. घर के चूल्हे की
हरी चटनी की बात कहीं और नहीं ...
ये पञ्च सितारा होटल तो दिखावे की दुकान है ..
पैसे का खेल है ...पेट की भूख का नहीं ...
ये आग नहीं बुझायेगी ....
यहाँ तो सभ्यता का नंगा नाच होता है
और लोगों को जाने क्यूँ वही भाते है ...
विडम्बना हम अपने घरों का स्वाद भूल गए ..
भूल गए माँ के हाथ का सोंधापन लिए वो प्यार ...
दुलार और ममता भरी वो गोद और प्यार का वो आंचल ..
बचा लेता था दुनिया की हर आफत से मुझे ...
बहुत चैन था वहाँ ..माँ ...तुम खो क्यूँ गयी मुझसे ...
काश के लौट आते वो दिन ,वही वक्त ,वही बेख़ौफ़ सा बचपन ..
और नीम के पेड़ के नीचे खेलना और झूलना .
घांव के खुले से मैदान का बरगद दादा
मिलने को मन बहुत करता है पर कैसे आऊँ
तुम तो चली गयी ....आ जाउंगी किसी रोज ..
तुम आवाज दे देना उसी छोर से
और मैं सब छोड़ चलो आऊँगी . ये दुनिया कैसे रोक पायेगी फिर भला ,
बहुत याद आती है वो छांव हमे तो ....- विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment