Monday, 20 August 2012

अजब सी सहर है न आज ..


ये चुप्पी सालने लगी है अब ...
आवाज को कान तरसने लगे है और हम ..
चौखट कर उस ओर की आहट को पहचानने भी लगे है ,
जानते हों तुम इस सच को ..
ये आंगन ,.....खेलते खेलते संजीदगी हों आई है अब ..
और सन्नाटा पसरने लगा है ...
चीखता है कानों के भीतर फिर भी बदस्तूर जारी है ..
कदम उठते उठते भी रुकते से है क्यूँ ?
परीक्षा किसी की नहीं ,खुद की ही है ये ..फरिश्ते जिद कर जाते है ..
माननी पडती है बात और फिर अखबार छप गया ..
मुझे नहीं मिला आज भी पढ़ने को ..
कहाँ चला जाता है ये अखबार इतनी छुट्टी ..?
नहीं सुनता मनमौजी सा हों गया है ..
ख्वाब सा देखता है ...ख्वाब देखना चाहिए जिंदगी के लिए जरूरी है ..
उन्वान न हों तो कदम राह से भटकने का दर भी रहता है
उन्वान ...नहीं इहलाम ...जो झंकृत करते है वीणा के सुरों को
और सज जाते है ख़ूबसूरती से चहुँ ओर ..
अजब सी सहर है न आज ...
जैसे बहुत जल्दी चली आई हों ..
और दिन ..कटते कटते कट जाता है ..
जिंदगी भी साँझ की ओर उन्मुख हुआ चाहती है ..
सदमे में क्यूँ हों ..मुस्कुराहट खोने मत दो अपनी ..
माँ को बुरा लगता है और
वो बूढा बरगद हंसते चेहरे देख कर खिलखिलाता है याद है न ..
उसकी आँखों के आंसूं नहीं भाते ..समझ लो इस सत्य को ..
समझदार हों गए हों अब बच्चों वाली हरकतें बंद कर दो ..जान इस सच को ..
अच्छा बहुत उपदेश हों गया आज के लिए ..पर ..अखबार ..?
लगता आज नहीं मिलेगा ..सहर के सूरज को सलाम किया जाये ..
सर पर चढ़ आया है ..बहुत काम बाकी है अभी ..चलूँ अब .- विजयलक्ष्मी

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