" रावण पूजित ज्ञान से ,मरा सदा अभिमान से ||
दशहरा पुतले फूंकेंगे कुछ नराधम सी शक्ले बनाकर
जलाएंगे कुछ वीरोचित सी शक्ल वाले
मगर रावण कहाँ है ..आज लडकियाँ चाहती है रावण सा भाई
जिसके घर रहकर भी सुरक्षित थी सीता माई
राम हे पुरुषोत्तम ..क्यूँ तुमने सुपनखा की नाक सहोदर से कटवाई
हे राम ..पुरुषोत्तम प्रभु ..क्या बधाई दू तुम्हे ..
सीता हरण की ,,या परित्यक्ता सीता के वनगमन की
साथ निभाने वन चली गयी वनिता ,,
अग्नि परीक्षा के बाद भी कोपभाजन बनी थी सीता
वाह रे पुरुषोत्तम -- तुम पूज्य रहे मर्यादा के महापुरुष हुए कैसे
सीता की चुप्पी नहीं चुभी कभी कैसे
वो रावण हितकारी जिसने परनारी की मर्यादा भी नहीं टाली
नगर निवासी नहीं बनाया भेज दी अशोकवन संग भेजी रखवारी
हे पुरुषोत्तम प्रभु ..तुम मर्यादित ..कैसी सुंदर मर्यादा तुम्हारी
हर युग में नारी को परित्राण ..पुरुष सम्मान का भागीदार
उसपर भी करता है अभिमान क्या खूब रचा तुमने भगवान
श्रद्धा व सुमन ज्ञान को और आपकी मर्यादा को नमन !!" --- विजयलक्ष्मी
दशहरा पुतले फूंकेंगे कुछ नराधम सी शक्ले बनाकर
जलाएंगे कुछ वीरोचित सी शक्ल वाले
मगर रावण कहाँ है ..आज लडकियाँ चाहती है रावण सा भाई
जिसके घर रहकर भी सुरक्षित थी सीता माई
राम हे पुरुषोत्तम ..क्यूँ तुमने सुपनखा की नाक सहोदर से कटवाई
हे राम ..पुरुषोत्तम प्रभु ..क्या बधाई दू तुम्हे ..
सीता हरण की ,,या परित्यक्ता सीता के वनगमन की
साथ निभाने वन चली गयी वनिता ,,
अग्नि परीक्षा के बाद भी कोपभाजन बनी थी सीता
वाह रे पुरुषोत्तम -- तुम पूज्य रहे मर्यादा के महापुरुष हुए कैसे
सीता की चुप्पी नहीं चुभी कभी कैसे
वो रावण हितकारी जिसने परनारी की मर्यादा भी नहीं टाली
नगर निवासी नहीं बनाया भेज दी अशोकवन संग भेजी रखवारी
हे पुरुषोत्तम प्रभु ..तुम मर्यादित ..कैसी सुंदर मर्यादा तुम्हारी
हर युग में नारी को परित्राण ..पुरुष सम्मान का भागीदार
उसपर भी करता है अभिमान क्या खूब रचा तुमने भगवान
श्रद्धा व सुमन ज्ञान को और आपकी मर्यादा को नमन !!" --- विजयलक्ष्मी
"विजयदशमी पर्व की शुभ एवं मंगलकामनाओ सहित माँ का स्नेहाशीष मनोकामना पूर्ण करे ||"
" अथाह ज्ञान भंडार रावण को श्रद्धासुमन ,,
चारित्रिक मर्यादा सृजक राम को नमन " ||
चारित्रिक मर्यादा सृजक राम को नमन " ||
विजय दशमी ...
" समाजिकता ,शस्त्र भी शास्त्र की छाया में ही पलते हैं
राम भी श्री राम ,सशस्त्र ऋषि अनुगमन से बनते हैं
एक दूजे बिन अधूरी रहती परम्पराओ की परिपाटी
न्याय की थपक से शस्त्र की खनक मर्यादा में ढलते है
यूँ कमी नहीं धरती पुत्रो की धरती पर लेकिन
ज्यादातर सर धुनते, विरले ही भगवान बन पुजते हैं " --- विजयलक्ष्मी
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