Tuesday, 7 October 2014

शरद पूर्णिमा ||

शरद पूर्णिमा 
सम्पूर्ण प्रेम 
पावन अवसर 
मन 
बना है ब्रजधाम 
राधा के अराध्य
मनमोहन
हे घनकेशी
हे घनश्याम
आ जाओ इस याम
खिला चन्दमा
सोलह कलाओ संग
रस बरसाओ मन आंगन में
और रचाओ रास
गोपी मन
करे पुकार
बजा बांसुरी
मधुर मनोरम
यमुना तट का करो श्रृंगार
महिमा अपरम्पार
सांवरे
अब तो दर्श दिखाओ
नैनो में तस्वीर बसी
मन वीणा पर सरगम गूंजे
चातक बन करें पुकार
अब सम्मुख आ जाओ
मेरे
कृष्णमुरार
मन मन्दिर को
पावन
कर जाओ एकबार .
-- विजयलक्ष्मी


" प्रेम को अमर बनाती ,सात्विक दृष्टिकोश से निहारती कृष्ण के आकर्षण में बांधती ,,इन्द्रिय नृत्य की महान  रात्रि ...रास अर्थात लास्य से परिपूर्ण हो आत्माए जब अपने आराध्य से मिलती है सम्पूर्ण प्रकृति उल्लासित होकर उस नृत्य में शामिल होती है ...रास देह नृत्य नहीं अपितु आत्मा का नृत्य है ...जिसमे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शामिल होता है .....चन्द्रमा भी अपने सौन्दर्य की सभी कलाओं से युक्त हो ...आज अर्धरात्रि लसित होता है साक्षी बनता है ....राशियों नक्षत्रो से भी खूबसूरत समर्पण करते हुए अभिसार युक्त जीवन के उन क्षणों में जब आराध्य का आराधंक में मिलन होता है .....कोई भेद नहीं रहता ....प्रकृति और ईश एक रूप हो उठते हैं ..जहाँ जीवन मृत्यु कुछ भी नहीं विलग नहीं ...प्रेम समग्रता से समग्र में शामिल होता है .. चन्द्रमा भी जैसे अमृतमय हो उठता है ...धरा नाच उठती है ,,,आत्मिकता का पूर्ण ब्रह्म से मिलन ..अद्भुत अनोखा संगम है गंगा जमुना जैसा पवित्र ...लास्य है किन्तु स्वार्थ नहीं.. समग्रता है किन्तु देह नगण्य अर्थात शून्य ..दैह्कता उसे छू भी नहीं पाती ....यही है प्रेम का ईश्वरीय तत्व ....नेह शामिल है देह नहीं आत्मा ब्रह्म से एकाकार होती है ....ईन्द्रिया संसारिकता से उपर अमृत रस पान करती है ...सृजन हैं किन्तु दौहिक नहीं ...सुख है किन्तु भौतिक नहीं ...जैसे करोड़ो मीरा अपने श्याम से मिली हो ...राधा कृष्णमय....कृष्ण राधामय होते हैं ......कोई भेद नहीं रहता अभेद ..अर्थात एकात्मकता के दर्शन ...शरद पूर्णिमा ..संवरती रात के साथ हर दोष से मुक्त होकर प्रेमभक्ति की पराकाष्ठ का दिन है ...रीती दर्शन ज्ञान द्वेष सबकुछ भूलकर प्रेमोत्सव की रात है ...प्रभु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की रात है ...किंचित सोच भी बाधक है इस मिलन में ....यहाँ विचार भी खाई जैसे प्रतीत होते है ..दीवार बनते हैं ...आलौकित करता परलौकिक परालौकिक प्रेम की अनुभूति करता ...शरद के आगमन का निर्मलता पूरित प्रेमोत्सव की रात ...प्रेमतत्त्व को प्राप्त करने की रात ..प्रेमामृत के रसास्वादन की रात ..आत्मा परमात्मा के साक्षात् मिलन की रात ||
महारास ..कान्हा का गोपिकाओ संग मिलन
रस पाग भिगोई आत्मा परसी ब्रह्मानन्द
इन्द्रिय विजयिनी गोपी प्रेम रस भीजी
जग सगरा भूल पावन संग भीजे ब्रह्मानन्द
 "---- विजयलक्ष्मी 

" तारे लापता है उडगन भूलकर डगर बैठ गए ,
चाँद शबाब पर क्यूँकर न हों आखिर पूनम की रात है ,
गुंचा ओ गुल खिले है हर डाली पर देखिये ,
क्यूँ न इठलाये चाँदनी भला आखिर पूनम की रात है
",- विजयलक्ष्मी


" कन्हैया मोहे दरस दिखा दो आज ,
चाँद भी पूरा भयो है आज ..कन्हैया मोहे ...

तुम बिन राधा कैसे पूरी ,
भक्ति तुम बिन रहे अधुरी ..
चन्द्रकला भी होंगी आज पूरी ..
गोपियन संग रचाओ रास ..
चाँद भी पूरा भयो है आज ..कन्हैया मोहे ...

तुम बिन कान्हा कैसे चैन मिले ..
नयनों से आँसू दिन रैन मिले ..
खोए कहाँ हों कृष्ण कन्हैया 
ढूंढ रहे है तुम्हे बंसी बजैया ..
चाँद भी पूरा भयो है आज ...कन्हैया मोहे ....

गलियों में ढूंढे तोहे गांव के ग्वाले ,
गोकुल की गलियाँ सब रंगरलिया ...
दूध दही अब कौन चुरावे 
सूने आंगन अखियाँ पथरावे ..
कन्हैया रंग बरसा जा आज ...कन्हैया मोहे "
-- विजयलक्ष्मी

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