1.
" जंगल के पौधे कब साये को ढूंढते है ,
कुए नहीं बनाता कोई धरतीपुत्र से खुद को हर बार सींचते है
माना कलियाँ खिलती है बरसात के साथ ही
मौसम की दुश्मनी के बाद भी जिन्दगी की दीवार चिनते हैं
धुप में मुस्कुराते है सहते है हर मौसम आप ही आपपर
स्वार्थी लोग उसके बाद भी कुल्हाड़ो से जीवन छीनते हैं
बीहड़ अहसास का कुछ तो पनाह देता है जिन्दगी को
जर्रा जर्रा ही सही कुछ लम्हों को बीनते हैं "
--- विजयलक्ष्मी
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2.
" प्रेमगली में कभी यूँभी टहलने निकलो
कदम कदम पर शोहदे खड़े मिलें तैयार
देशप्रेम की डगर पर सन्नाटा बहुत ठहरा
कोई विरला ही होता है. चलने को तैयार "
-- विजयलक्ष्मी
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3.
" एक खामोश विराना मुझसे वजूद बूझता है ,
बिन बोले भी सूरज बन उसी से जूझता है
खुशबू जंगली फूल की बागीचे में ढूंढता है
आखेटक आखेट करके क्यूँ आखेट से जूझता है
हाल ए दिल भी धर तलवार की धार पूछता है
सहरा में समन्दर बना प्यास का बादल का पता पूछता है
प्यासा कुआ हुआ है या आदम रूह का पता पूछता है "
बिन बोले भी सूरज बन उसी से जूझता है
खुशबू जंगली फूल की बागीचे में ढूंढता है
आखेटक आखेट करके क्यूँ आखेट से जूझता है
हाल ए दिल भी धर तलवार की धार पूछता है
सहरा में समन्दर बना प्यास का बादल का पता पूछता है
प्यासा कुआ हुआ है या आदम रूह का पता पूछता है "
--- विजयलक्ष्मी
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4.
" तलवार उठाई जाये वरना जंग लग जायेगा यूँही
थोड़ी जुबाँ चले कैंची सी थोड़ी हो कटार जहरीली
कदम नहीं थकेंगे हाँ कुछ छाले भी बनेंगे पाँव में
सुना है ..जिन्दगी की सडक यूँभी होती है पथरीली "
-- विजयलक्ष्मी
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