Wednesday 8 October 2014

" वाल्मीकि जयंती पर विशेष .."




वाल्मीकि जयंती पर उठते कुछ सवाल ||
क्या कभी इनका उत्तर मिलेगा या ..अनुत्तरित ही रहेंगे हमेशा ...राष्ट्रवाद का छायादार वृक्ष बड़ा होना चाहता है किन्तु ..कैसे ..सवाल देखने में छोटा सा है किन्तु बहुत बड़ा अर्थ छिपाए है खुद में मर्यादा पुरुषोत्तम के बच्चो को बचपन की सीख देने वाले सीता माता को राम के द्वारा त्याग दिए जाने पर पालनपोषण करने वाले  संत क्या सिर्फ एक दिन याद करना... उस समाज के प्रति आधुनिक समाजिक सोच कृतघ्नता नहीं लगती किसी को ..राम पूजित सीता पूजनीय संत और संत के अनुयायी अस्पर्श्य उससे बढकर ...कोई सुध भी नहीं लेना चाहता ..आखिर क्यूँ ?क्या रामायण का सृजन झूठ है या अछूता है समाज में ......रामचरित मानस कोई नहीं कहता सभी रामायण कहते हैं ...किसी ग्रन्थ के नाम में अथाह ज्ञान हो और अनुयायी उतने ही अज्ञानी ...कैसा अजीब सा बेतार का तारतम्य है |
..सोचकर देखना कभी फुर्सत के पलो में वाल्मीकि जयंती ..संत की तरह पूजा किन्तु ...इसी संत के अनुयायी आज भी निचले तबके के सबसे नीचले पायदान पर कहूं ..नहीं जमीं के भीतर ही खड़े हैं ...जिनके कन्धो पर स्वच्छता अभियान की नींव रखी है ..जो धर्म के निम्नतम स्तर पर खड़े होकर भी धर्म से विमुख नहीं है ..लेकिन उनकी और देखने वाला कोई नहीं है ......आरक्षण में भी निम्नतम पायदान ...यद्यपि कभी कभी लगता है ये स्वयम भी दोषी है लेकिन ....अशिक्षा ..पिछड़ापन ..अज्ञानता ...के कारण .. कुछ सोयी हुई सरकारे ..स्वार्थी राजनीती और हमारा समाज सभी दोषी है कही न कहीं ...एक छुट्टी.. और कर्तव्य की इतिश्री ...इनके कारण ही सभी धर्म के लोग देश में रहते हैं ..क्यूंकि इन्होने कभी अपने को आज तक कर्तव्य विमुख नहीं किया ...बिना भेदभाव के नित्यकर्म शील रहते हैं ...मुस्लिम इसाई जैन बुद्ध सभी धर्म या सम्प्रदाय आरक्षित श्रेणी में इनसे अधिक लाभ प्राप्त करते है फिर भी चीखते हैं ..इन्हें शिक्षित करने का भी कोई उचित साधन अभी तक इनके  पास भी नहीं पहुंचा सबको स्वच्छ रखने वाले ये लोग ..स्वयम उसी  कीचड़ गंदगी अस्वच्छ वातावरण में रहने को मजबूर है .......क्या कोई इनकी सुध लेगा कभी या बस आरक्षण के गीत अन्य तराने ही गाते रहेंगे ...मजबूर और मजबूर होंगे ,,
जिए जगत को देकर ज्ञान ,
करते जिनपर सब अभिमान
वाल्मीकि संस्कार के रक्षक
अविदित है आज भी ..कराकर मर्यादा का भान
--- विजयलक्ष्मी 

शरद पूर्णिमा 2016 कुछ जाना कुछ अनजाना ----
आश्चिन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा के रुप में मनाई जाती है|
शरद पूर्णिमा की रात को सबसे उज्जवल चांदनी छिटकती है। चांद की रोशनी में सारा आसमान धुला नज़र आता है। ऐसा लगता है मनो बरसात के बाद प्रकृति साफ और मनोहर हो गयी है। माना जाता है कि इसी धवल चांदनी में मां लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण के लिए आती हैं। शास्त्रों के अनुसार इसी दिन माता लक्ष्मी और महर्षि वाल्मीकि का जन्म हुआ था | भगवान शिव और माता पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय का जन्म भी इसी दिन हुआ था | शास्त्रों के अनुसार शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि के बाद मां लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू पर बैठकर धरती के मनोहर दृश्य का आनंद लेती हैं। इस दिन श्रीसूक्त, लक्ष्मीस्तोत्र का पाठ करके हवन करना चाहिए. इस विधि से कोजागर व्रत करने से माता लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं तथा धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा आदि सभी सुख प्रदान करती हैं | शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। इसी को कौमुदी पूजा और व्रत भी कहते है। ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दी धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
साथ ही माता यह भी देखती हैं कि कौन भक्त रात में जागकर उनकी भक्ति कर रहा है। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को कोजागरा भी कहा जाता है। कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है कौन जाग रहा है। मान्यता है कि जो इस रात में जगकर मां लक्ष्मी की उपासना करते हैं मां लक्ष्मी की उन पर कृपा होती है। शरद पूर्णिमा के विषय में ज्योतिषीय मत है कि जो इस रात जगकर लक्ष्मी की उपासना करता है उनकी कुण्डली में धन योग नहीं भी होने पर माता उन्हें धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं।
🌹शरद पूर्णिमा का महत्व —
ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए देश के कई हिस्सों में शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ तब मां लक्ष्मी राधा रूप में अवतरित हुई। भगवान श्री कृष्ण और राधा की अद्भुत रासलीला का आरंभ भी शरद पूर्णिमा के दिन माना जाता है।
शैव भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म भी शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसी कारण से इसे कुमार पूर्णिमा भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में इस दिन कुमारी कन्याएं प्रातः स्नान करके सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं। माना जाता है कि इससे योग्य पति प्राप्त होता है।
शरण पूर्णिमा पर—
इस दिन गाय के दूध से खीर बनाकर उसमें घी और चीनी मिलाकर रात्रि में चन्द्रमा की रोशनी में रख दें। सुबह इस खीर का भगवान को भोग लगाएं तथा घर के सभी सदस्य सेवन करें। इस दिन खीर बनाकर चन्द्रमा की रोशनी में रखने से उसमें औषधीय गुण आ जाते हैं तथा वह मन, मस्तिष्क तथा शरीर के लिए अत्यन्त उपयोगी मानी जाती हैं। इससे दिमाग तेज होता है। एक अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है। शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है।
इस रात्रि को कुछ लोग चाँद की तरफ देखते हुए सुई में धागा पिरोते है। कुछ लोग काली मिर्च को चांदनी में रख कर सेवन करते है। माना जाता है की इनसे आँखों स्वस्थ होती है और उनकी रौशनी बढ़ती है। आयुर्वेद के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन खीर को चन्द्रमा की किरणों में रखने से उसमे औषधीय गुण पैदा हो जाते है। और इससे कई असाध्य रोग दूर किये जा सकते है। खीर खाने का अपना औषधीय महत्त्व भी है। इस समय दिन में गर्मी होती है और रात को सर्दी होती है। ऋतु परिवर्तन के कारण पित्त प्रकोप हो सकता है। खीर खाने से पित्त शांत रहता है। इस प्रकार शारीरिक परेशानी से बचा जा सकता है। शरद पूर्णिमा की रात में खीर का सेवन करना इस बात का प्रतीक है कि शीत ऋतु में हमें गर्म पदार्थों का सेवन करना चाहिए क्योंकि इसी से हमें जीवनदायिनी ऊर्जा प्राप्त होगी।
मान्यता है कि गाय के दूध से किसमिस और केसर डालकर चावल मिश्रित खीर बनाकर शाम को चंद्रोदय के समय बाहर खुले में रखने से उसमें पुष्टिकारक औषधीय गुणों का समावेश हो जाता है जब अगले दिन प्रातः काल उसका सेवन करते हैं, तो वह हमारे आरोग्य के दृष्टिकोण से अत्यंत लाभकारी हो जाती है। यह खीर यदि मिटटी की हंडिया में रखी जाये,और प्रातः बच्चे उसका सेवन करें ,तो छोटे बच्चों के मानसिक विकास में अतिशय योगदान करती है ;ऐसा आयुर्वेद में उल्लेखित है। इस खीर के प्रयोग से अनेक मानसिक विकारों से बचा जा सकता है।
वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है। शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
जानिए योग और शरद पूर्णिमा का सम्बन्ध–
लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।

शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है , वर्षभर में बारह(१२) पूर्णिमा होती है लेकिन सिर्फ शरद पूर्णिमा पर ही अमृतवर्षा होती है ! यह एक मान्यता मात्र नहीं है , वरन आध्यात्मिक अवस्था की एक खगोलीय घटना है | शरद पूर्णिमा की रात्रि पर चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है एवं वह अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण रहता है | इस रात्रि चन्द्रमा का ओज सबसे तेजवान एवं उर्जावान होता है | इसके साथ ही शीतऋतु का प्रारंभ होता है | शीतऋतु में जठराग्नि तेज हो जाती है और मानव शरीर स्वस्थ्यता से परिपूर्ण होता है परन्तु इस घटना का आध्यात्मिक पक्ष इस प्रकार होता है कि जब मानव अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तो उसकी विषय – वासना शांत हो जाती है | मन इन्द्रियों का निग्रह कर अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाता है | मन का मल निकल जाता है और मन निर्मल एवं शांत हो जाता है | तब आत्मसूर्य का प्रकाश मन रुपी चन्द्रमा पर प्रकाशित होने लगता है , इस प्रकार जीवरूपी साधक की अवस्था शरद पूर्णिमा की हो जाती है और वह अमृतपान का आनंद लेता है | यही मन की स्वस्थ्य अवस्था होती है | इस अवस्था में साधक अपनी इच्छाशक्ति को प्राप्त होता है | योग में इसी को धारणा कहते है | धारणा की प्रगाढ़ता ही ध्यान में परिवर्तित हो जाती है और यहाँ से ध्यान का प्रारंभ होता है"

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