Wednesday 15 October 2014

'लो इक रक्तिम सा उनवान तुम्हारा हुआ "

" वो कातिल सी पदचाप 
आहत होती सी आहट
ये कौन है 
छिपकर बैठ गया 
मुझमे 
जैसे सुबह से घबराकर 
अँधेरे ने 
चटकनी बंद कर ली हो 
क्या तुम बता सकते हो 
मुझे ..मेरी ही आवाज नही सुनती 
फिर 
छटपटाकर रह जाती हूँ 
क्या तुमने सुनी ..?
धडकनों में धडकती रागिनी 
लहू के संग 
उसी में रंग 
बह उठी है जो 
'लो इक रक्तिम सा उनवान 
तुम्हारा हुआ "
सूर्य रश्मि सा  
कल किसने देखी है 
मगर फिर भी 
आस का दीप 
जलता रहता है 
"अखंड ज्योत सा ""--- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment