Wednesday 15 October 2014

" मगर जड़े पैठी गहरे हैं "

वक्त इतना बदल गया ,
मगर हम वहीं ठहरे है 
यूंतो लहू नहीं गिरा 
मगर रंग बहुत गहरे है
कच्ची ठहरी छान 
मगर धरती से रिश्ते गहरे है
पत्थर ही रहू अच्छा है
मगर घाव मिलते गहरे हैं
चाहत तो खरीदी न गयी
मगर नफरत के साथ ठहरे है
चुभता हूँ तीखा हूँ दर्दीला सा
मगर सदियों से ठहरे हैं
गमले बहुत होंगे आंगन में
मगर जड़े पैठी गहरे हैं
मोहताज हूँ भी नहीं भी
मगर पैरो के जख्म गहरे है
-- विजयलक्ष्मी 

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