Friday 17 October 2014

" भीगते रहे हम यूँही..जज्बात से "

" दर औ दीवार भीगे बरसात से
भीगा करे हम..बीती कई रात से

सूरज उग आया शहर में लेकिन
तरबतर हूँ मैं ..उसकी बात से

वो बादल तो खो गये कहीं
बहुत सख्त-जान हूँ.. जज्बात से

हैराँ है लोग दुश्मनाई करतब से
गरीब कब मरता है गुरबती ताप से

भूख मरती नहीं जिन्दा रखती है
खंजर चलता है.. जज्बात से

ये बरसात यूँही बरसे खुदारा
भीगते रहे हम यूँही..जज्बात से "
 --- विजयलक्ष्मी 

1 comment:

  1. Bahut sunder prastuti ...badhaai ...dusara aashaar gazab lga mujhe... Mere blog par aapka swagat hai :)

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