" हमने कब सापेक्ष समाजों की कविता लिखी नहीं ,
तुमने लगता है बात अभी समझी नहीं ,
हर शब्द वाबस्ता हों ये तो जरूरी भी नहीं ,
बोला था अहसास कलम को नहीं छूते मेरे ,
कत्ल हुयी सहर का सूरज आ पहुंचा घर मेरे ,
मुझसे ही मरहम माँगा है उसने ..जो जला हुआ है भीतर से ,
क्या दवा क्या दारू ,क्या अस्पताल क्या शिक्षालय ,
सबकी मजहबी चाल पुरानी है ....
जिसके भीतर झांक रहे हों हर हवेली बिलकुल वीरानी है ,
न जज्ब हुए जज्बे मरते हैं ,न जवानी आज देश की दीवानी है ,
मेरे हाथों में कलम तलवार बन गयी गर उसे देखकर क्यूँ नीर बहते हों ,
तुम अपने घ्ब्दों से सोचो कितनो को घायल कर जाते हों ,
आबादी का रोना रोते रोते ...युग बीत गए धरती पर ...
कर कन्या भूर्ण हत्या इतिश्री हुयी इसी धरती पर ,
ये जज्बा जाने कब होगा पूरा ,,,
मर जाऊं पर ख्वाब हकीकत कब होगा मेरा ...
फिर परचम लहरा जाये मेरे भारत का ...
करे आराम ,थके थके से सूरज को भी वक्त तो चाहिए
फिर चलना है नया सफर है ...
अभी पड़ाव बहुत है और मंजिल दूर खड़ी है ....
वक्त की बेबाकियाँ ही हर मोड पर खड़ी है ..
जला है वक्त कितना और जलना है ...
जिंदगी बस अब आगे सफर पर भी चलना है ,
बता इजाजत मिलेगी किस छोर पर ...
है कुछ यहाँ भी ...जो चले जाते यूँ बिन खबर के छोड़ कर" ...विजयलक्ष्मी
तुमने लगता है बात अभी समझी नहीं ,
हर शब्द वाबस्ता हों ये तो जरूरी भी नहीं ,
बोला था अहसास कलम को नहीं छूते मेरे ,
कत्ल हुयी सहर का सूरज आ पहुंचा घर मेरे ,
मुझसे ही मरहम माँगा है उसने ..जो जला हुआ है भीतर से ,
क्या दवा क्या दारू ,क्या अस्पताल क्या शिक्षालय ,
सबकी मजहबी चाल पुरानी है ....
जिसके भीतर झांक रहे हों हर हवेली बिलकुल वीरानी है ,
न जज्ब हुए जज्बे मरते हैं ,न जवानी आज देश की दीवानी है ,
मेरे हाथों में कलम तलवार बन गयी गर उसे देखकर क्यूँ नीर बहते हों ,
तुम अपने घ्ब्दों से सोचो कितनो को घायल कर जाते हों ,
आबादी का रोना रोते रोते ...युग बीत गए धरती पर ...
कर कन्या भूर्ण हत्या इतिश्री हुयी इसी धरती पर ,
ये जज्बा जाने कब होगा पूरा ,,,
मर जाऊं पर ख्वाब हकीकत कब होगा मेरा ...
फिर परचम लहरा जाये मेरे भारत का ...
करे आराम ,थके थके से सूरज को भी वक्त तो चाहिए
फिर चलना है नया सफर है ...
अभी पड़ाव बहुत है और मंजिल दूर खड़ी है ....
वक्त की बेबाकियाँ ही हर मोड पर खड़ी है ..
जला है वक्त कितना और जलना है ...
जिंदगी बस अब आगे सफर पर भी चलना है ,
बता इजाजत मिलेगी किस छोर पर ...
है कुछ यहाँ भी ...जो चले जाते यूँ बिन खबर के छोड़ कर" ...विजयलक्ष्मी
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