"बीत चुकी आधी रात
रोशन है वो इक खिड़की
क्या हुआ होगा वहां ..?
नींद नहीं आने से टहलते हुए उस खिड़की पर पहुंचते ही ठिठक गयी मेरी नजर..
क्या ..कोई बीमार की तिमारदारी में लगा है
या बतियाते होंगे आपस में
या इंतजार के लम्हे समेटे हुए गुजरते है लम्हे वहां
या खेल रहे हैं सभी लोग
या कोई गम्भीर विषय पर कर रहे हैं विचार विमर्श
या उठ रहे है सवाल दर सवाल जेहन में उनके भी मेरी तरह देश के
या असमान कानूनी शिकंजो के
या बिकते हुए कानून के
या पढ़ रहे होंगे अपने ज्ञानवर्धन के लिए
या युद्ध के विनाश की चर्चा पर पसरी होगी शांति
या सृजन की राह ढूंढ रहा है कोई
या रास्ता मंजिल तक पहुंचने का अपनी
या ....नीरसता बरस रही है
या सरसता बिखेर रही है खुशबू
या बिटिया के ब्याह की चिंता खाए जा रही है
या ..या ..या ..मन उद्वेलित है देखकर मद्धम सी उस रौशनी को लेकर
आवाज भी नहीं सुनती बस कयास और कयास ..
जैसे मुझे युद्धरत कर रही है
सियाचिन की सेना सी
भगत सिंह की फांसी सी
आजाद सी उन्मुक्तता जैसे भारत माँ आजाद होकर भी अधूरी श्रंगारित हो अभी
कहीं कल के सफाई अभियान की चर्चा तो नहीं हुई कोई
सड़के गंदी है अभी ..
हमारे भीतर की जिन्दगी क्यूँ आखिर ..
क्यूँ देख रही हूँ मैं उस खिड़की को
फिर एक बात याद आई मुझे ..
रौशनी अमीरी सी लगती है और अँधेरे मुफलिसी का ठिकाना .
प्रश्न वही अपनी जगह खड़ा था मुह बाए ..ज्यूँ का त्यूं | "--- विजयलक्ष्मी
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