Wednesday 22 October 2014

"अफ़सोस ,,, मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो ...क्या बात हो "

"
दीप को बुझना ही होगा किसी तौर भी ,
काश बुझते समय मुस्कुराहट बड़ी हो और भी 
अफ़सोस मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो क्या बात हो ,
बुझना मतलब रोशन होगा जहां ,
दीप की जरूरत न रहेगी बकाया 
खुद सूरज बन चमकने लगोगे ...या
दीप बन खुद ही जलने लगोगे
या खो जायेगा अँधेरा
जब हो जायेगा जिन्दगी का अनवरत सवेरा
मेरा क्या ....यूँभी मुर्दे खामोश होते हैं जुबाँ नहीं होती उनके ..
संज्ञान तो लिया होगा ..
खामोश सी ख़ामोशी सहमकर खामोश ही है
तुम तो जानते ही हो ...
चिरैया चहकी ..
देखा गिद्ध ने..
संधाना सिद्ध ने,
खाल उतारी प्रसिद्द ने,
क्यूंकि उसकी आवाज चुभती थी कर्णप्रिय नहीं थी ,
विरोध ..अनुरोध ..या महज विनोद ..
शब्द शब्द ..प्रारब्ध ...समय से आबद्ध ,
डूबा आकंठ ,बन बैठा नीलकंठ
विषपान तो कर लिया ..अब आगे क्या
दीप को बुझना ही होगा किसी तौर भी ,
काश बुझते समय मुस्कुराहट बड़ी हो और भी
अफ़सोस ,,,
मुझे नहीं बुझाने वाले को हो तो ...क्या बात हो "! ---- विजयलक्ष्मी
 



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