Friday, 25 April 2014

"सीप तुम ,समझलो अब और जरूरत ही नहीं "

हम जिक्र भी करे तो शोर कत्ल का ,
यूँ कत्ल हुए पर्दादारी की जरूरत भी नहीं .

डूबे हैं समन्दर की गहराई में इस कदर
उबरना चाहूँ अब इसकी जरूरत ही नहीं .

क्या करेगे पतवार भलाडूबने के बाद हम 
लहर हुए सवार तो कश्ती की जरूरत ही नहीं 

स्वाति बूँद बन गिरू मैं उसी समन्दर में 
सीप तुम ,समझलो अब और जरूरत ही नहीं

दरिया कहूं या स्रोत तुम्हे अमृतजल का
अनवरत सी ये प्यास बुझाऊँ जरूरत ही नहीं - विजयलक्ष्मी 

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