Saturday, 26 April 2014

"लोकतंत्र का गूंजता हुआ मन्त्र कहीं खो गया "

इस जमी पर रहते हैं 
हिन्दू मुस्लिम इसाई सिक्ख बौद्ध 
इस जमीं पर और भी है 
ब्राह्मण राजपूत बढई भंगी 
स्त्री पुरुष हैं भी या नहीं लेकिन 
यहाँ किन्नर भी रहते है 
झुग्गी झोपडी ...कच्चे पक्के मकान है ..
महल हैं दुमहले हैं 
मुर्दा हुयी देह लथेड़ते बुत मिलते हैं 
जो लड़ते है ...स्वार्थ के लिए 
बांटते हैं ..खुदा भगवान गोड को
उनके घरों को
यहाँ भ्रष्ट ..आचार के लोग रहते हैं
क़त्ल ख्वाबों के हत्यारे रहते हैं
मरोड़ते तोड़ते हैं उनकी बताई राह को अपने लाभ के लिए
अपने वंश के अमृत्व को
हर जगह ढूँढा ..नहीं मिला ..
एक भी इंसान ..
जागता जमीर
जिन्दा सी जिन्दगी
घर का निशाँ
उजला सा दिल
प्रेम ..स्नेह ..
मिली देह ...बिखरता नेह
टूटी-फूटी आत्मा ...तडपती जलती घुट्ती हुयी अन्तरात्मा
सूरज रोज निकलता है यूँ तो कहने को
नहीं मिलती मगर ...मुकम्मल सुबह
मिलती है धर्म की कलह
इंसानियत रोती मिल जाएगी तुम्हारे ही शहर के किसी चौराहे पर
किसी दूकान पर ,,,चमकते हुए मकान पर
मेरा देश ..मेरा हिंदुस्तान खो गया इनके बीच कहीं
सोन चिरैया सा बदन था खो गया
जन्नत कहूँ या स्वर्ग को भी मात देता मेरा भारत कहीं गुम हो गया
चुनावी अखाड़े के अहंकार में लहुलुहान है बहुत
लोकतंत्र का गूंजता हुआ मन्त्र कहीं खो गया
जन गण मन देश का क्यूँ कैसे कब सो गया .-- विजयलक्ष्मी

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