Tuesday, 15 April 2014

सोचते है जब भी मंजिल पास है मालूम हुआ.. थी मारीचिका की क्यारी


हमे आग से न डराया कर ,इस आग से भूख मरती नहीं हमारी ,
रोटिया कम पडती है और नदिया सी अनवरत प्यास बढती हमारी 
सुरसा सी गरीबी मन में छाई ...देह ढकने के जतन सब कम पड़ गये 
बिन ब्याही माँ की बदनामी जैसी रहती है जज्बात ए हालत हमारी 
तुम नहीं रुकोगे ..कभी मुडकर भी नहीं देखोगे ...दूर का सफर ठहरा 
सोचते है जब भी मंजिल पास है मालूम हुआ.. थी मारीचिका की क्यारी .--- विजयलक्ष्मी

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