सरहद पर सीमा-प्रहरी थे सरफरोश हम सीना तानकर ,
सत्ता के भूखो ने ही कटवाए सर हमारे गुलाम मानकर .-- विजयलक्ष्मी
वतन पर मिटने की चाह हम सिरफिरों को सरहद तक लायी थी
सरकारी हुक्मरानो की जिद... काटनी थी गर्दन जिसकी उसी से कटाई थी-- विजयलक्ष्मी
भटकते हैं लोग सरल सी एक मुस्कुराहट के लिए ,
खिले चेहरा, नजरे भी टिकी है उसी आहट के लिए .
दीप बना खुद को तेल से पूरित हो बैठे है साँझ से
इन्तजार क्यूँ राहों पर जल उठे जगमगाहट के लिए.- - विजयलक्ष्मी
सत्ता के भूखो ने ही कटवाए सर हमारे गुलाम मानकर .-- विजयलक्ष्मी
वतन पर मिटने की चाह हम सिरफिरों को सरहद तक लायी थी
सरकारी हुक्मरानो की जिद... काटनी थी गर्दन जिसकी उसी से कटाई थी-- विजयलक्ष्मी
भटकते हैं लोग सरल सी एक मुस्कुराहट के लिए ,
खिले चेहरा, नजरे भी टिकी है उसी आहट के लिए .
दीप बना खुद को तेल से पूरित हो बैठे है साँझ से
इन्तजार क्यूँ राहों पर जल उठे जगमगाहट के लिए.- - विजयलक्ष्मी
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