नहीं चाहिए तुम्हारी झूठी सांत्वना
नहीं चाहिए तुम्हारे धन की गठरी
नहीं चाहिए तुम्हारी सियासत
न तुम्हारी कमाई अपनी विरासत
तुम्हे जो चहिये ले जाओ ..बहुत प्रेम है निस्वार्थ भाव लिए
मैं नदी हूँ ...बहती हूँ किनारों की मर्यादा में
मैं तडपकर भी अपने जल को गरमाती नहीं हूँ
मैं किसी को प्यासा कब रहने देती हूँ
जब जिसने चाह स्नान किया दिखावे का तप और दान किया
स्वार्थ पूर्ति हित झगड़े किये तलवार निकाली
देश की सीमाओं की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
तट से बंधीं मैं सरहद की तर्ज पर धर्म की सीमाओं में बाँध दिया
मुझे खूंटे से बाँधने की चाहत लिए तुम ..नाव लिए उतर पड़े
हर बार मेरे मुहाने आकर नहर नहर कर मेरे टुकड़े किये
शव भी जलाये तुमने ...घरौंदे भी मिटाए
मैं चुप थी हंसती रही ...तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
चलती रही खामोश हर दर्द को खुद में समेटकर
तुमने स्नान ही किया होता तो अच्छा होता ,, लेकिन
तुमने मुझमे छोड़ा ...तन का मैंल ...मन का छोड़ते तो अच्छा होता
तुमने जोड़ा लालच अगले जन्म का ..इस जन्म को पवित्रता से जोड़ते तो अच्छा होता
तुमने छोड़े तन के मैले कपड़े तट पर मेंरे ..
तुम मन को शुद्ध करते मुझमे नहाकर तो अच्छा होता
मैं इंतजार में रही ...तुम समझोगे कभी तो ..
तुम चुप रहे महसूस करके भी ..मैं भी खामोश बहती थी
पूछोगे कभी हाल ...दर्द को समझोगे मेरे
झांक सकोगे रूह में ,,बाँट सकोगे स्नेह को ,,
लेकिन नहीं ..तुम अपनी धुन में.. अपने विचार ..अपनी मनमानी
जानते हो ये सत्य भी मरने के बाद नहीं लौटूंगी कभी ..
क्या इसीलिए जतन से मार रहे हो मुझे !
कर रहे हो मुझे गधला ..भर रहे हो अनाचार की परिभाषा
खत्म कर रहे हो जिन्दगी की आशा
जिन्दा रहने के मेरे प्रयास असफल कर रहे हो तुम
याद रखना ..हर गंदगी मेरी आयु कम कर रही है वक्त से पहले
मैं गंगा हूँ ...गंगा ही रहूंगी अंतिम साँस तक
तुम दनुज हो जाओ तो... तुम जानो -- विजयलक्ष्मी
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